________________
जैन, बौद्ध और गीता के दर्शन में कर्म का स्वरूप ]
[ १७६ फिर भी जैन विचारणा निर्वारण मार्ग के साधन के लिए दोनों को हेय और त्याज्य मानती है क्योंकि दोनों ही बन्धन का कारण हैं । वस्तुतः नैतिक जीवन की पूर्णता शुभाशुभ या पुण्य-पाप से ऊपर उठ जाने में है । शुभ (पुण्य) और अशुभ (पाप) का भेद जब तक बना रहता है नैतिक पूर्णता नहीं प्राती है । अशुभ पर पूर्ण विजय के साथ ही व्यक्ति शुभ (पुण्य) से भी ऊपर उठकर शुद्ध दशा में स्थित हो जाता है ।
जैन दृष्टिकोण :
ऋषिभांसित सूत्र में ऋषि कहता है पूर्वकृत पुण्य और पाप संसार-संतति के मूल हैं ।' आचार्य कुन्दकुन्द पुण्य-पाप दोनों को बन्धन का कारण मानते हुए भी दोनों के बन्धकत्व का अन्तर भी स्पष्ट कर देते हैं । समयसार ग्रन्थ में वे कहते हैं अशुभ कर्म पाप ( कुशील) और शुभ कर्म पुण्य (सुशील) कहे जाते हैं । फिर भी पुण्य कर्म भी संसार (बन्धन) का कारण होता है । जिस प्रकार स्वर्ण
बेड़ी भी लोह बेड़ी के समान ही व्यक्ति को बन्धन में रखती है । उसी प्रकार जीव कृत सभी शुभाशुभ कर्म भी बन्धन का कारण होते हैं । २ श्राचार्य दोनों को ही आत्मा की स्वाधीनता में बाधक मानते हैं । उनकी दृष्टि में पुण्य स्वर्ण बेड़ी है और पाप लोह बेड़ी । फिर भी प्राचार्य पुण्य को स्वर्ण बेड़ी कहकर उसकी पाप से किंचित श्रेष्ठता सिद्ध कर देते हैं । प्राचार्य अमृतचन्द्र का कहना है कि पारमार्थिक दृष्टिकोण से पुण्य और पाप दोनों में भेद नहीं किया जा सकता क्योंकि अन्ततोगत्वा दोनों ही बन्धन हैं । इसी प्रकार पं० जयचन्द्रजी ने भी कहा है
“ पुण्य पाप दोऊ करम, बंधरूप दुइ मानि ।
शुद्ध आत्मा जिन लह्यो, वंदू चरन हित जानि ॥ ४
अनेक जैनाचार्यों ने पुण्य को निर्वाण के लक्ष्य, दृष्टि से हेय मानते हुए भी उसे निर्वाण का सहायक तत्त्व स्वीकार किया है । यद्यपि निर्वाण की स्थिति को प्राप्त करने के लिए अन्ततोगत्वा पुण्य को छोड़ना होता है फिर भी वह निर्वारण में ठीक उसी प्रकार सहायक है जैसे साबुन, वस्त्र के मैल को साफ करने में सहायक है । शुद्ध वस्त्र के लिए साबुन का लगा होना जिस प्रकार अनावश्यक है उसे भी अलग करना होता है, वैसे ही निर्वाण या शुद्धात्म दशा में पुण्य का. होना भी अनावश्यक है । उसे भी क्षय करना होता है । लेकिन जिस प्रकार साबुन मैल को साफ करता है और मैल की सफाई होने पर स्वयं अलग हो जाता है
१ - इसि० ६ / २ ।
२ - समयसार १४५-१४६ ।
३ – प्रवचनसार टीका १/७२ ।
४ - समयसार टीका पृष्ठ २०७ ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org