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________________ जैन, बौद्ध और गीता के दर्शन में कर्म का स्वरूप ] [ १७५ पाश्चात्य आचार दर्शन में भी सुखवादी विचारक कम की फलश्रुति के आधार पर उनकी शुभाशुभता का निश्चय करते हैं जबकि मार्टिन्यू कर्म प्रेरक पर उनकी शुभाशुभता का निश्चय करता है । जैन विचारणा के अनुसार इन दोनों पाश्चात्य विचारणाओं में अपूर्ण सत्य रहा हुआ है । एक का आधार लोक दृष्टि या समाज दृष्टि है । दूसरी का आधार परमार्थ दृष्टि या शुद्ध दृष्टि है । एक व्यावहारिक सत्य है और दूसरा पारमार्थिक सत्य । नैतिकता व्यवहार से परमार्थ की ओर प्रयाण है अतः उसमें दोनों का ही मूल्य है । कर्म के शुभाशुभत्व निर्णय की दृष्टि से कर्म के हेतु और परिणाम के प्रश्न पर गहराई से विवेचन जैन विचारणा में किया गया है । चाहे हम कर्ता के अभिप्राय को शुभाशुभता के निर्णय का आधार मानें, या कर्म के समाज पर होने वाले परिणाम को । दोनों ही स्थितियों में किस प्रकार का कर्म पुण्य कर्म या उचित कर्म कहा जावेगा और किस प्रकार का कर्म पाप कर्म या अनुचित कर्म कहा जावेगा यह विचार आवश्यक प्रतीत होता है । सामान्यतया भारतीय चिन्तन में पुण्य-पाप की विचारणा के सन्दर्भ में सामाजिक दृष्टि ही प्रमुख है । जहाँ कर्म अकर्म का विचार व्यक्ति सापेक्ष है, वहाँ पुण्यपाप का विचार समाज सापेक्ष है । जब हम कर्म, अकर्म या कर्म के बन्धनत्व का विचार करते हैं तो वैयक्तिक कर्म प्रेरक या वैयक्तिक चेतना की विशुद्धता ( वीतरागता ) ही हमारे निर्णय का आधार बनती है लेकिन जब हम पुण्य-पाप का विचार करते हैं तो समाज कल्याण या लोकहित ही हमारे निर्णय का श्राधार होता है । वस्तुतः भारतीय चिन्तन में जीवनादर्श तो शुभाशुभत्व की सीमा से ऊपर उठना है उस सन्दर्भ में वीतराग या अनासक्तं जीवन दृष्टि का निर्माण ही व्यक्ति का परम साध्य माना गया है और वही कर्म के बन्धकत्व या अबन्धकत्व का प्रमापक है । लेकिन जहाँ तक शुभ-अशुभ का सम्बन्ध है उसमें 'राग' या आसक्ति का तत्त्व तो रहा हुआ है । शुभ और अशुभ दोनों ही राग या आसक्ति तो होती ही है अन्यथा राग के अभाव में कर्म शुभाशुभ से ऊपर उठकर प्रतिनैतिक होगा । यहाँ प्रमुखता राग की उपस्थिति या अनुपस्थिति की नहीं वरन् उसकी प्रशस्तता या अप्रशस्तता की है । प्रशस्त राग शुभ या पुण्य बन्ध का कारण माना गया है और अप्रशस्त राग अशुभ या पाप बन्ध का कारण है । राग की प्रशस्तता उसमें द्व ेष के तत्त्व की कमी के आधार पर निर्भर होती है । यद्यपि राग और द्वेष साथ-साथ रहते हैं तथापि जिस राग के साथ द्वेष की मात्रा जितनी अल्प और कम तीव्र होगी वह राग उतना प्रशस्त होगा और जिस राग के साथ द्वेष की मात्रा और तीव्रता जितनी अधिक होगी वह उतना ही प्रशस्त होगा । द्वेषविहीन विशुद्ध राग या प्रशस्त राग ही प्रेम कहा जाता है । उस प्रेम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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