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[ कर्म सिद्धान्त
विचारों एवं क्रियाओं की ओर प्रेरित करते हैं तथा आध्यात्मिक, मानसिक एवं भौतिक अनुकूलताओं के संयोग प्रस्तुत कर देते हैं । आत्मा की वे मनोदशाएँ एवं क्रियाएँ भी जो शुभ पुद्गल परमाणु को आकर्षित करती हैं भी पुण्य कहलाती हैं । साथ ही दूसरी ओर वे पुद्गल परमाणु जो इन शुभ वृत्तियों एवं क्रियाओं को प्रेरित करते हैं और अपने प्रभाव से आरोग्य, सम्पत्ति एवं सम्यक् श्रद्धा, ज्ञान एवं संयम के अवसर उपस्थित करते हैं पुण्य कहे जाते हैं । शुभ मनोवृत्तियाँ भाव पुण्य हैं और शुभ पुद्गल परमाणु द्रव्य पुण्य हैं ।
पुण्य या कुशल कर्मों का वर्गीकरण :
भगवती सूत्र में अनुकम्पा, सेवा, परोपकार आदि शुभ प्रवृत्तियों को पुण्योपार्जन का कारण माना है ।' स्थानांग सूत्र में नव प्रकार के पुण्य बताए गए हैं ।
१. अन्न पुण्य
२. पान पुण्य
३. लयन पुण्य
४. शयन पुण्य
५. वस्त्र पुण्य
६.
मन पुण्य
७.
८.
ह.
वचन पुण्य
काय पुण्य
नमस्कार पुण्य
: भोजनादि देकर क्षुधार्त्त की क्षुधा निवृत्ति करना ।
: तृषा ( प्यास) से पीड़ित व्यक्ति को पानी पिलाना ।
: निवास के लिये स्थान देना, धर्मशालाएँ आदि बनवाना । : शय्या, बिछौना आदि देना ।
: वस्त्र का दान देना ।
: मन से शुभ विचार करना । जगत के मंगल की शुभ
कामना करना ।
: प्रशस्त एवं संतोष देने वाली वाणी का प्रयोग करना ।
: रोगी, दुःखित एवं पूज्य जनों की सेवा करना ।
: गुरुजनों के प्रति आदर प्रकट करने के लिए उनका अभिवादन करना ।
बौद्ध आचार दर्शन में भी पुण्य के इस दानात्मक स्वरूप की चर्चा मिलती है । संयुक्त निकाय में कहा गया है - अन्न, पान, वस्त्र, शय्या, आसन एवं चादर दानी पण्डित पुरुष में पुण्य की धाराएँ आ गिरती हैं । अभिधम्मत्य संगहो में (१) श्रद्धा, (२) अप्रमत्तता (स्मृति), (३) पाप कर्म के प्रति लज्जा, (४) पाप कर्म के प्रति भय, (५) प्रलोभ (त्याग), (६) अद्वेष-मैत्री, (७) समभाव, ( ८-९ ) मन और शरीर की प्रसन्नता, ( १०-११ ) मन और शरीर का हलकापन, ( १२-१३ ) मन और शरीर की मृदुता, (१४-१५) मन और शरीर की सरलता आदि को भी कुशल चैतसिक कहा गया है | 3
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१ – भगवती, ७/१०/१२ । ३ - अभिधम्मत्य संगहो ( चैतसिक विभाग ) ।
२ - स्थानांग & ।
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