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ज्ञानयोग : भक्तियोग : कर्मयोग ]
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भक्त के लिए आनुषंगिक और अनिवाय उपलब्धि है - उसके लिए वह ज्ञानमार्गियों की तरह भ्रम नहीं करता । वह तो सर्वात्मना आराध्य के प्रति समर्पित हो जाता है और आराध्य कृपा करके वह स्वयं रसे उपलब्ध हो जाता है । वह मानता है कि जिसे माना है उसी में अपने को डुबो दो, लीन कर दो - समर्पित कर दो । उसे साधन से नहीं पाया जा सकता, हाँ वह स्वयं ही साधन बन जाय और अपने को उपलब्ध करा दे - यह संभव है । भक्ति वह तत्त्व है जो की नहीं जाती 'जैहि पै बनि आवै ' - हो जाती है - जिससे बन गई, बन गई अन्यथा प्रयत्न करते रहो - निष्फल । गजराज सुरसरि की विपरीत धार में बह जाता है- - लाख प्रयत्न के बावजूद जबकि मछली निष्प्रयास तर जाती है । ज्ञान से 'स्वरूप का बोध हो जाता है, भक्ति से 'स्वरूप' बोध के बाद कल्पित भेद की भूमि पर रस कीड़ा चलती रहती है । भक्ति कर्म नहीं है, भाव है, जो स्वरूप साक्षात्कार के अनन्तर श्रमर होती है । जब तक स्वरूप साक्षात्कार नहीं है, तब तक अविद्या का साम्राज्य है । अविद्या से अहंकार का प्रादुर्भाव होता है और 'अहंकार विमूढात्मा र्कता - हमिति मन्यते ' - अहंकार-ग्रस्त व्यक्ति स्वयं को कर्ता मानता है यह अविद्याजनित-अहंकार-मूलक-कर्तृत्व बोध जब तक रहेगा, तब तक जो कुछ भी होगावह कर्तृत्व-सापेक्ष होने से 'कर्म' ही कहा जायगा - 'भक्ति' नहीं । फलतः वास्तविक भाव राज्य का उदय प्रविद्या निवृत्ति एवं स्वरूप- साक्षात्कार के बाद होता है । यही 'भाव' प्रगाढ़ होकर 'प्रेम' बनता है - 'भावः स एव सान्द्वत्मा बुधै प्रेमा निगधते'
यह सब कुछ चित्त की एकतानता से संभव है - जो तब तक संभव नहीं है जब तक मलात्मक आवरण जीर्ण न हो । मलशान्ति के निमित्त निष्काम भाव से कर्म का सम्पादन अपेक्षित है ।
बात यह है कि 'कर्म' का त्याग तो सर्वात्मना संभव है नहीं । जहाँ मरना, जीना, सांस लेना और छोड़ना भी 'कर्म' है - वहां कर्म का स्वरूपतः त्याग तो संभव नहीं । सच्चा कर्मत्याग फलासक्ति का त्याग है । कर्म रूपी बिच्छू का डंक है - आसक्ति । इसी के कारण आवरणों का होना संभव होता है । फलत: इसी आसक्ति का त्याग होने से कर्म अकर्म हो जाते हैं - उनसे आवरणों का आना बंद हो जाता है - शेष को ज्ञानाग्नि भस्मसात् कर देती है । अनासक्त कर्म बंधन नहीं, मुक्ति का साधन बन जाता है— कर्म योग बन जाता है ।
गीतकार ने सवाल खड़ा किया कि स्वभाव में प्रतिष्ठित हो जाने के बाद कर्म छोड़ देना चाहिये या करना चाहिए ? भगवान् कृष्ण ने सिद्धान्त रूप में कहा कि लोक संग्रह के लिए स्वरूपोपलब्धि के बाद भी कर्म करना चाहिए । इस प्रकार स्वरूप साक्षात्कार से पूर्व मलापहार के निमित्त अनासक्त भाव से और स्वरूप साक्षात्कार के बाद लोक संग्रह के निमित्त कर्म करते रहना चाहिए । संक्षेप में यही ज्ञानयोग, भक्ति योग और कर्मयोग का आशय है ।
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