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[ कर्म सिद्धान्त
'सद्वद्य सम्यक्तव हास्यरति पुरुष वेद शुभायुर्नाम गोत्राणि पुण्यम्'' अर्थात् साता वेदनीय, समकित मोहनीय, हास्य, रति, पुरुष वेद, शुभ आयु, शुभ नाम और शुभ गोत्र ये पुण्य प्रकृतियाँ हैं, अन्य सब पाप प्रकृतियाँ हैं ।
पुण्य प्रकृतियाँ बन्धने के हेतु :
पुण्य प्रकृतियाँ नव प्रकार से बन्धती हैं, यथा - ( १ ) अन्न पुण्य - अन्न दान . करने से, (२) पान पुण्य- पानी या पीने की वस्तु देने से, (३) वत्थ पुण्य - वस्त्र (५) शयन पुण्य - बिछाने के साधन देने करने से, (७) बचन पुण्य - शुभ बचन शुभ कार्य करने से तथा ( ९ ) नमस्कार
देने से, (४) लयन पुण्य - स्थान देने से, से, (६) मन पुण्य-मन से शुभ भावना बोलने से, (८) काया पुण्य- शरीर से पुण्य - बड़ों व योग्य पात्रों को नमस्कर करने से ।
पाप प्रकृतियाँ :
कुल ८२ प्रकृतियाँ पाप भोगने की हैं, जो इस प्रकार हैं- [ १ ] ज्ञानावरणीय ५ ( समस्त), [२] दर्शनावरणीय ह ( समस्त ), [ ३ ] वेदनीय १ (साता ), [४] मोहनीय २६ ( समकित व मिश्र मोहनीय को छोड़), [५] आयुष्य १ ( नरकायु) [६] नाम ३४ ( ५ संहनन + ५ संस्थान + १० स्थावर दशक + २ नरक द्विक + २ तिर्यंच द्विक + ४ चार इन्द्रिय (एकेन्द्रिय से चतुरेन्द्रिय) + ४ अशुभ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श + १ उपघात + १ अशुभ विहायोगति ), [ ७ ] गोत्र १ (नीच गोत्र ), [ ८ ] अन्तराय ५ ( समस्त ) ।
इस प्रकार ये ८२ प्रकृतियाँ पाप वेदन करने की मानी गई हैं । पुण्य की ४२ और पाप की ८२ दोनों मिलाकर १२४ प्रकृतियाँ होती हैं । शेष ३६ प्रकृतियाँ रहती हैं । इनमें २ प्रकृति मोहनीय की ( समकित मोहनीय व मिश्र मोहनीय) व ३२ प्रकृतियाँ नाम कर्म की (बन्धन नाम १५, ५ शरीर संघात, ३ वर्ण, ३ रस, ६ स्पर्श ) सम्मिलित नहीं की गई हैं । दर्शन मोहनीय त्रिक (समकित मिश्र व मिथ्यात्व मोहनीय) का बन्ध एक होने से दर्शन मोह की दो प्रकृतियाँ छोड़ दी गई हैं तथा नाम कर्म की शेष ३२ प्रकृतियाँ शुभाशुभ छोड़कर मानी गई हैं जिससे इन्हें पुण्य-पाप प्रकृतियों में नहीं लिया गया है ।
पुण्य-पाप प्रकृतियों पर चिंतन करने से स्पष्ट होता है कि तिर्यंच आयु को पुण्य प्रकृति में लिया है जबकि तिथंच गति व तिर्यंचानुपूर्वी को पाप प्रकृतियों में । ऐसा क्यों ? इसका कारण यह प्रतीत होता है कि तिर्यंच भी मृत्यु नहीं चाहते । विष्ठा का कीड़ा भी मरना नहीं चाहता । इस अपेक्षा तिर्यंचायु को पुण्य प्रकृति माना गया है । शेष ज्ञानी कहें, वहीं प्रमाण है ।
१ - तत्त्वार्थ सूत्र ८- २६ ।
२ - नव तत्त्व से ।
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