________________
२० । कर्म और कर्मफल
॥ श्री राजेन्द्र मुनि
कर्म-फल का भोग-अटल :
- कर्म और उसके फल का सम्बन्ध कारण और कार्यवत् है । कारण की उपस्थिति कार्य को अवश्य ही अस्तित्व में लाती है। जहाँ अग्नि है वहाँ धूम्र की उपस्थिति भी सर्वनिश्चित है । बिना अग्नि के धूम्र नहीं हो सकता है, उसी प्रकार सुख अथवा दुःख का भोग जब आत्मा द्वारा किया जा रहा है तो निश्चय ही उसकी पृष्ठभूमि में कारणस्वरूप पूर्वकृत कर्म है। आत्मा को कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। इससे उसका निस्तार किसी भी स्थिति में संभव नहीं है। यह भी तथ्य है कि सत्कर्मों के फल भी शुभ होते हैं और असत् कर्मों के फल अशुभ । सहज प्रवृत्तिवश हम सुखोपभोग के लिये तो लालायित रहते हैं । पर दुःखों को भोगने के लिये कौन तत्पर रहता है ? किन्तु हमारी इच्छा-अनिच्छा से कर्मफल टलता या बढ़ता-घटता नहीं है। इस सिद्धान्त के सम्बन्ध में जैन-दर्शन सर्वथा स्पष्ट और दृढ़ है कि आत्मा को पूर्वकर्मानुसार फल का भोग अनिवार्यतः करना पड़ता है। कारण उत्पन्न करना मनुष्य के वश की बात है, किन्तु इसके पश्चात तज्जनित कार्य पर उसका वश नहीं हो सकता । अग्नि को स्पर्श करने पर हाथ का जलना सर्वथा निश्चित एवं अटल होता है। उसी प्रकार कर्ता को कर्म का फल भोगना पड़ता है । शुभ कर्मों के सुखद फलों को भोगने के लिये सभी तत्पर रहें, यह स्वाभाविक ही है । इसी प्रकार दुःखद फलों से बचना भी चाहेंगे, किन्तु यह संभव नहीं है। साथ ही फल सदा कर्मानुरूप ही हुआ करते हैं। अशुभ कर्म के शुभ फल प्राप्त करना तनिक भी संभव नहीं है। जैसे बीज होंगे तदनुसार ही फल होंगे । 'बोए पेड़ बबूल के' फिर कोई व्यक्ति 'आम' का रसास्वादन नहीं ले सकता । जैन धर्म में कर्म सिद्धान्त को विशेष प्रतिष्ठा है। इससे व्यक्ति को वर्तमान आचरण भी शुद्ध और शुभ रखने की प्रेरणा मिलती है । भगवान् महावीर के इस कथन "कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि" से यह सिद्ध होता है कि किये गये कर्मों का फल भोगे बिना आत्मा का छुटकारा नहीं होता। परिणामतः सभी श्रेष्ठ फल-प्राप्ति के अभिलाषीजन कर्म की श्रेष्ठता पर भी पूरा ध्यान देते हैं।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org