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________________ १० ] [ कर्म सिद्धान्त स्वतः होता है। परन्तु यह विशिष्ट कर्म स्वतः नहीं होता। यहां तो जीव के द्वारा हेतुओं से जो किया जाय, उस पुद्गल वर्गणा के संग्रह का नाम कर्म है । कर्म के भेद और व्यापकता : कर्म के मुख्यतः दो भेद हैं-द्रव्यकर्म और भावकर्म । कार्मण वर्गणा का आना और कर्म पुद्गलों का आत्म प्रदेशों के साथ सम्बन्धित होना, द्रव्य कर्म है। द्रव्य कर्म के ग्रहण करने की जो राग-द्वेषादि की परिणति है, वह भाव कर्म है। आपने ज्ञानियों से द्रव्य कर्म की बात सुनी होगी। द्रव्य कर्म कार्य और भाव कर्म कारण है। यदि आत्मा की परिणति, राग द्वेषादिमय नहीं होगी तो द्रव्य कर्म का संग्रह नहीं होगा। आप और हम बैठे हुए भी निरन्तर प्रतिक्षण कर्मों का संग्रह कर रहे हैं। परन्तु इस जगह, इसी समय, हमारे और आपके बदले कोई वीतराग पुरुष बैठे तो वे सांपरायिक कर्म एकत्रित नहीं करेंगे। क्योंकि उनके कषाय नहीं होने से, ईर्यापथिक कर्मों का संग्रह है। सिद्धों के लिए भी ऐसी ही स्थिति है। लोक का कोई भी कोना खाली नहीं है, जहां कर्मवर्गणा के पुद्गल नहीं घूम रहे हों। और ऐसी कोई जगह नहीं, जहां शब्द-लहरी नहीं घूम रही हो। इस हाल के भीतर कोई बच्चा रेडियो (ट्रांजिस्टर) लाकर बजाये अथवा उसे आलमारी के भीतर रखकर ही बजाये तो भी शब्द लहरी वहां पहुंच जायेगी और संगीत लहरी पास में सर्वत्र फैल जायेगी। इस शब्द लहरी से भी अधिक बारीक, सूक्ष्म कर्म लहरी है। यह आपके और हमारे शरीर के चारों ओर घूम रही है और सिद्धों के चारों तरफ भी घूम रही है। परन्तु सिद्धों के कर्म चिपकते नहीं और हमारे आपके चिपक जाते हैं। इसका अन्तर यही है कि सिद्धों में वह कारण नहीं है, राग-द्वेषादि की परिणति नहीं है। कर्म का मूल राग और द्वेष : ऊपर कहा जा चुका है कि हेतु से प्रेरित होकर जीव के द्वारा जो किया जाय, वह कर्म है । और कर्म ही दुःखों का कारण है-मूल है । कर्म का मूल बताते हुए कहा कि-'रागो य दोसो, बीय कम्म बीयं ।" यानी राग और द्वेष दोनों कर्म के बीज हैं। जब दुःखों का मूल कर्म है तो आपको, दुःख निवारण के लिए क्या मिटाना है ? क्या काटनी है ? दःख की बेड़ी। यह कब हटेगी ? जब कर्मों की बेड़ी हटेगी-दूर होगी। और कर्मों की बेड़ी कब कटेगी ? जब राग-द्वेष दूर होंगे। बहुधा एकान्त और शान्त स्थान में अनचाहे भी सहसा राग-द्वेष आ घेरते हैं । एक कर्म भोगते हुए, फल भोग के बाद, आत्मा हल्की होनी चाहिये, परन्तु साधारणतया इसके विपरीत होता है । भोगते समय राग-द्वेष उभर आते या चिन्ता-शोक घेर लेतें तो नया बंध बढ़ता जाता है। इससे कर्म-परम्परा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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