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जीवन में कम-सिद्धान्त की उपयोगिता ]
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करता हुआ अपनी आत्मा को संसार-समुद्र के गहन गर्त से निकाल कर मोक्ष रूपी चरम शिखर पर पहुंच सकता है। जब मानव अपने जीवन में हताश एवं निराश हो जाता है, अपने चारों ओर उसे अन्धकार ही अन्धकार दृष्टिगोचर होता है, यहां तक कि उसका गन्तव्य मार्ग भी विलुप्त हो जाता है। ऐसे समय में उस दुःखी आत्मा को कर्म सिद्धान्त ही एकमात्र धैर्य और शान्ति प्रदान करता है । यह सिद्धान्त उसको बताता है कि हे मानव ! जिस परिस्थिति को देखकर अथवा पाकर तू रोता है या दुःखी होता है, यह तेरे स्वयं द्वारा निर्मित है, इसलिए इसका फल भी तुझे ही भोगना है। कभी यह हो नहीं सकता कि कर्म तू स्वयं करे और फल कोई अन्य भोगे। .
जब मनुष्य अपने दुःख और कष्टों में स्वयं अपने आपको कारण मान लेता है तब उसमें कर्म के फल भोगने की शक्ति भी आ जाती है। इस प्रकार जब मानव कर्म सिद्धान्त को पूर्ण रूप से समझकर उस पर विश्वास करता है, तब उसके जीवन में निराशा, तमिस्रा और आत्म-दीनता दूर हो जाती है । उसके लिए जीवन भोग-भूमि न रहकर कर्त्तव्य-भूमि बन जाता है। जीवन में आने वाले सुख एवं दुःख के झंझावातों में उसका मन प्रकम्पित नहीं होता अपितु एक आशा की लहर उमड़ पड़ती है ।
सुख के उजले सुन्दर वासर, संकट की काली रातें ।
वर्षों कट जाते हैं दिन-दिन, आशा की करते बातें ।। कर्म सिद्धान्त को मानने वाले व्यक्ति का जीवन प्राशामय बन जाता है। वह अपने जीवन में काल, स्वभाव, होनहार आदि से अधिक महत्त्व अपने कृत कर्म (पुरुषार्थ) को देता है और कभी निराश नहीं होता क्योंकि कर्म सिद्धान्त यह बताता है कि आत्मा को सुख-दुःख की गलियों में घुमाने वाला मनुष्य का कर्म ही है। यह उसके अतीत कर्मों का अवश्यंभावी परिणाम है। हमारी वर्तमान अवस्था जैसी भी है और जो कुछ भी है, वह किसी दूसरे के द्वारा हम पर लादी नहीं गई है, अपितु हम स्वयं उसके निर्माता हैं अतएव जीवन में जो उत्थान और पतन आता है, जो विकास और ह्रास आता है तथा जो सुख और दुःख आता है, उसका दायित्व हम पर है, किसी अन्य पर नहीं। एक दार्शनिक के शब्दों में
"I am the master of my fate,
I am the Captain of my soul." अर्थात् मैं स्वयं अपने भाग्य का निर्माता हूँ, मैं स्वयं आत्मा का अधिनायक हूँ, मेरी इच्चा के विरुद्ध मुझे कोई किसी अन्य मार्ग पर नहीं चला सकता। मेरे मन का उत्थान ही मेरा उत्थान है तथा मेरे मन का पतन ही मेरा पतन है ।
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