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[ कर्म सिद्धान्त
अप्रत्याख्यान-त्यागवृत्ति का न होना अप्रत्याख्यान है ।
प्रत्याख्यानावरण-कषायों के नष्ट न होने तक त्यागवृत्ति की विभिन्न दशाओं को प्रत्याख्यानावरण कहते हैं ।
संज्वलन-अर्थात् सामान्य कषाय श्रुत भोग प्रवृत्ति, आहार, भय, मैथुन, परिग्रह इन चार मूल संज्ञाओं से विरत नहीं होना।
क्रोध-कामना उत्पन्न होने पर क्षुभित होना अर्थात् चित्त का कुपित होना क्रोध है।
मान-भोग भोगने की अभिलाषा का चित्त में बस जाना मान है। इसकी प्रतिक्रिया अहंकार रूप में प्रकट होती है ।
माया-भोग भोगने में लग जाना माया है। लोभ-भोग की लालसा का बना रहना लोभ है ।
चारित्र मोहनीय के अनन्तानुबंधी आदि प्रत्येक भेद के साथ क्रोध, मान, माया, लोभ इनका संबंध रहता है ।
नोकषाय-कषाय के सहायक कारणों को नोकषाय कहते हैं । सहायक कारणों के रहते कषायों का प्रभाव पूर्णत: नष्ट नहीं होता है। यह ६ प्रकार की है यथा
१. रति-भोग काल में जो सुखानुभूति होती है उसे रति कहते हैं । २. हास-उस सुखानुभूति से जो उल्लास होता है उसे हास कहते हैं ।
३. अरति-इच्छा वासना के बनी रहने के कारण चित्त का खिन्न होना अरति है।
४. शोक-खिन्नता के साथ क्लेश उत्पन्न होता है, उसे शोक कहते हैं । ५. भय-भोग के साधनों के नाश की आशंका भय है।
६. जुगुप्सा-भोग साधनों के रक्षण की भावना अथवा भोग के साधनों के नष्ट होने के कारणों से घृणा करना जुगुप्सा है।
७. पुरुष वेद-भोगों को सामान्य प्रकार से वेदना (भोगना) पुरुषवेद है।
८. स्त्री वेद-रसासक्ति सहित भोग प्रवृत्ति स्त्री वेद का लक्षण है।
६. नपुसक वेद-मिथ्यात्व के लक्षणों सहित भोग में लगे रहना नपुसक वेद का लक्षण है।
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