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कर्म प्रकृतियाँ और उनका जीवन के साथ संबंध
सुख-दुःख अनुभव करते हुए मन, वचन, काया द्वारा जो क्रिया की जाती है, उसे भोग कहते हैं । भोग भोगने पर जो संस्कार आत्मा पर अंकित होते हैं, उन्हें कर्म कहते हैं । ये संस्कार पुनः जीवन पर प्रकट होते हैं. उसे कर्मोदय कहते हैं । जो मुख्य रूप से आठ प्रकार के हैं यथा - १. ज्ञानावरणीय, २ . दर्शनावरणीय, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम, ७. गोत्र, ८. अन्तराय ।
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श्री श्रीचन्द गोलेछा
१. ज्ञानावरणीय कर्म ५ प्रकार का है
१. मतिज्ञानावरणीय - विषय भोगों में सुख है, ऐसी बुद्धि का होना मतिज्ञानावरणीय कर्म का फल है, यह विषय सुख छोड़ने में बाधक है ।
२. श्रुतज्ञानावरणीय - भोग के प्रति रुचि का होना इसका फल है । इससे भोग बुद्धि पर नियन्त्रण नहीं हो पाता ।
३. प्रवधिज्ञानावरणीय - मतिज्ञानावरणीय और श्रुतज्ञानावरणीय कर्म के कारण जीवन में जो भोग की वृत्ति व प्रवृत्ति होती है, उस भोग की वृत्ति व प्रवृत्ति की यथार्थता का अंश मात्र भी आत्मिक ज्ञान न होना अवधिज्ञानावरणीय है ।
४. मनः पर्यायज्ञानावरणीय - भोग भोगने में रसानुभूति से अलग नहीं कर पाना, इसका लक्षण है । इसके कारण कामना का अन्त नहीं होता है । ५. केवलज्ञानावरणीय - चित्त पर से घाति कर्मों का प्रभाव नष्ट न होना इसका फल है ।
२. दर्शनावरणीय कर्म & प्रकार का है
१. चक्षुदर्शनावरणीय - भोग बुद्धि से प्रभावित होकर दृश्यमान भोग्य पदार्थों से संबंध स्थापित करना, चक्षुदर्शनावरणीय का फल है ।
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२. अचक्षुदर्शनावरणीय - जिन पदार्थों से संबंध स्थापित किया है उनमें रुचि पैदा होना अर्थात् उनमें रस लेना अचक्षुदर्शनावरणीय के कारण होता है ।
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