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________________ ११२ ] [ कर्म सिद्धान्त स्थानमोह से सम्बन्धित हैं तथा अन्तिम दो गुणस्थान योग से । इन गुणस्थानों में कर्मबन्ध की स्थिति का वर्णन करते हुए जैनाचार्यों ने बताया कि प्रथम दश गुरणस्थान तक चारों प्रकार के बन्ध उपस्थित रहते हैं किन्तु ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक मात्र प्रकृति और प्रदेश बन्ध ही शेष रहते हैं तथा चौदहवें गुणस्थान में ये दोनों भी समाप्त हो जाते हैं । तदनन्तर चारों प्रकार के बन्ध से मुक्त होकर यह जीवात्मा सिद्ध / परमात्मा हो जाता है । यह निश्चित है कि आत्मा कर्म और नोकर्म जो पौद्गलिक हैं, से सर्वथा भिन्न है । इस पर पौद्गलिक वस्तुनों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा करता, यह अनुभूति भेद-विज्ञान कहलाती है, जो जीव को तप / साधना की ओर प्रेरित करती है | आगम में तप की परिभाषा में कहा गया है कि 'परं कर्मक्षयार्थ यत्तप्यते तत्तपः स्मृतम्' अर्थात् कर्मों का क्षय करने के लिए जो तपा जाय वह तप है । जैन दर्शन में तप के मुख्यतया दो भेद किए गए हैं - बाह्य तप और आभ्यन्तर तप । बाह्य तप के अन्तर्गत अनशन / उपवास, अवमौदर्य / उनोदर, रसपरित्याग, भिक्षाचरी / वृत्तिपरिसंख्यान, परिसंलीनता/विविक्तशय्यासन और कायाक्लेश तथा आभ्यन्तर तप में - विनय, वैयावृत्य / सेवा सुश्रूषा, प्रायश्चित, स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग / व्युत्सर्ग नामक तप श्राते हैं । आभ्यन्तर तप की अपेक्षा बाह्य तप व्यवहार में प्रत्यक्ष परिलक्षित हैं किन्तु कर्म क्षय और श्रात्मशुद्धि के लिए तो दोनों ही प्रकार के तप का विशेष महत्त्व है । वास्तव में तप के माध्यम से ही जीव अपने कर्मों का परिणमन कर निर्जरा कर सकता है । इसके द्वारा कर्म-श्रास्रव समाप्त हो जाता है और अन्ततः सर्वप्रकार के कमजाल से जीव सर्वथा मुक्त हो जाता है । कर्म मुक्ति अर्थात् मोक्ष प्राप्त्यर्थ जैनदर्शन का लक्ष्य रहा है- वीतराग-विज्ञानिता की प्राप्ति । यह वीतरागता सम्यक् दर्शन - ज्ञान- चारित्ररूपी रत्नत्रय की समन्वित साधना से उपलब्ध होती है । वस्तुतः श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र से कर्मों का निरोध होता है । जब जीव सम्यक्दर्शन -ज्ञान- चारित्र से युक्त होता है तब आस्रव से रहित होता है जिसके कारण सर्वप्रथम नवीन कर्म कटते / छँटते हैं, फिर पूर्वबद्ध / संचित कर्म क्षय / दूर होने लगते हैं । कालान्तर में मोहनीय कर्म सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो जाते हैं । तदनन्तर अन्तराय, ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय ये तीन कर्म भी एक साथ सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो जाते हैं । इसके उपरान्त शेष बचे चार अघाति कर्म भी नष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार समस्त कर्मों का क्षय / दूर कर जीव निर्वाण / मोक्ष को प्राप्त हो जाता है । जैसा कि आगम में कहा गया है कि 'कृत्स्न कर्म क्षयो मोक्षः ।' उपर्यंकित कथ्य से यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्म-मल से दूर हटने के लिए जीवन में रत्नत्रय की समन्वित साधना नितान्त उपयोगी एवं सार्थक है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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