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कर्म, कर्मबन्ध और कर्मक्षय
सूक्ष्म पुद्गल परमाणुनों का बना हुआ सूक्ष्म / अदृश्य शरीर वस्तुत: कार्माण शरीर कहलाता है । यह कार्माण शरीर आत्मा में व्याप्त रहता है । आत्मा का जो स्वभाव ( अनन्त ज्ञान- दर्शन, अनन्त आनन्द-शक्ति आदि) है, उस स्वभाव को जब यह सूक्ष्म शरीर विकृत / आच्छादित करता है तब यह आत्मा सांसारिक / बद्ध हो जाता है अर्थात् राग-द्वेषादिक काषायिक भावनाओं के प्रभाव में आ जाता है अर्थात् कर्मबन्धन में बँध जाता है जिसके फलस्वरूप यह जीवात्मा अनादिकाल से एक भव / योनि से दूसरे भव / योनि में अर्थात् अनन्तभवों / अनन्त योनियों में इस संसार चक्र में परिभ्रमण करता रहता है ।
कर्म जैसे महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त का सूक्ष्म तथा वैज्ञानिक विश्लेषण जितना जैन दर्शन करता है उतना विज्ञान सम्मत अन्य दर्शन नहीं । जैन दर्शन के समस्त सिद्धान्त / मान्यताएँ वास्तविकता से अनुप्राणित, प्रकृति अनुरूप तथा पूर्वाग्रह से सर्वथा मुक्त हैं । फलस्वरूप जैन धर्म एक व्यावहारिक तथा जीवनोपयोगी धर्म है ।
श्री राजीव प्रचंडिया
'कर्मबन्धन' की प्रणाली को समझने के लिए जैनदर्शन में निम्न पाँच महत्त्वपूर्ण बातों का उल्लेख निरूपित है, यथा
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(१) आस्रव,
(२) बन्ध, (३) संवर,
(४) निर्जरा, तथा (५) मोक्ष |
मनुष्य जब कोई कार्य करता है, तो उसके आस-पास के वातावरण में क्षोभ उत्पन्न होता है जिसके कारण उसके चारों ओर उपस्थित कर्म-शक्ति युक्त सूक्ष्म पुद्गल परमाणु/कार्माण वर्गणा / कर्म आत्मा की ओर आकर्षित होते हैं । इनका आत्मा की ओर आकर्षित होना आस्रव तथा आत्मा के साथ क्षेत्रावगाह / एक ही स्थान में रहने वाला सम्बन्ध बन्ध कहलाता है । इन परमाणुत्रों को आत्मा की ओर आकृष्ट न होने देने की प्रक्रिया वस्तुतः संवर है । 'निर्जरा'
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