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कर्म और पुरुषार्थ ]
[ १०५ तुम प्रमत्त बने, बुरा आचरण करने लगे। तुम्हारा राज्य लाभ मोहरों में टल गया।"
इससे यह स्पष्ट होता है कि संचित पुण्य बुरे पुरुषार्थ से पाप में बदल जाते हैं और संचित पाप अच्छे पुरुषार्थ से पुण्य में बदल जाते हैं । यह संक्रमण होता है, किया जाता है।
मुनिजी को फिर मैंने कहा-यह जैन दर्शन का मान्य सिद्धान्त है और मैंने इसी का “जीव अजीव" पुस्तक में विमर्श किया है। 'स्थानांग' सूत्र में चतुर्भगी मिलती हैचउविहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा
सुभे नाम मेगे सुभविवागे, सुभे नाम मेगे असुभविवागे, असुभे नाम मेगे सुभविवागे,
असुभे नाम मेगे असुभविवागे। (ठाणं ४/६०३) एक होता है शुभ, पर उसका विपाक होता है अशुभ । दूसरे शब्दों में बंधा हुआ है पुण्य कर्म, पर उसका विपाक होता है पाप । बंधा हुआ है पाप कर्म, पर उसका विपाक होता है पुण्य । कितनी विचित्र बात है। यह सारा संक्रमण का सिद्धान्त है। शेष दो विकल्प सामान्य हैं। जो अशुभ रूप में बंधा है, उसका विपाक अशुभ होता है और जो शुभरूप में बंधा है, उसका विपाक शुभ होता है। इन दो विकल्पों में कोई विमर्शणीय तत्त्व नहीं है, किन्तु दूसरा और तीसरा-ये दोनों विकल्प महत्त्वपूर्ण हैं और संक्रमण सिद्धान्त के प्ररूपक हैं। . संक्रमण का सिद्धान्त पुरुषार्थ का सिद्धान्त है । ऐसा पुरुषार्थ होता है कि अशुभशुभ में और शुभ अशुभ में बदल जाता है ।
इस संदर्भ में हम पुरुषार्थ का मूल्यांकन करें और सोचें कि दायित्व और कर्तृत्व किसका है ? हम इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि सारा दायित्व और कर्तृत्व है पुरुषार्थ का । अच्छा पुरुषार्थ कर आदमी अपने भाग्य को बदल सकता है । अनेक बार निमितज्ञ बताते हैं-भाई ! तुम्हारा भाग्य अच्छा है, पर अच्छा कुछ भी नहीं होता। क्योंकि वे अपने भाग्य का ठीक निर्माण नहीं करते, पुरुषार्थ का ठीक उपयोग नहीं करते । पुरुषार्थ का उचित उपयोग न कर सकने के कारण कुछ भी नहीं हुआ और बेचारा ज्योतिषी झूठा हो गया। उसकी भविष्यवाणी असत्य हो गई।
ज्योतिषी ने किसी को कहा कि तुम्हारा भविष्य खराब है। उस व्यक्ति
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