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________________ कम और पुरुषार्थ ] [ ६६ चेतना नहीं होती वह परतंत्र हो सकता है, पर शतप्रतिशत परतंत्र तो वह भी नहीं होता। प्रारणी चेतनावान् है। उसकी चेतना है। जहाँ चेतना का अस्तित्व है वहाँ पूरी परतंत्रता की बात नहीं पाती। दूसरी बात है-काल, कर्म आदि जितने भी तत्त्व हैं वे भी सीमित शक्ति वाले हैं । दुनिया में असीम शक्ति संपन्न कोई नहीं है । सब में शक्ति है और उस शक्ति की अपनी मर्यादा है। काल, स्वभाव, नियति और कर्म-ये शक्ति-संपन्न हैं, पर इनकी शक्ति अमर्यादित नहीं है। लोगों ने मान रखा है कि कर्म सर्वशक्ति संपन्न है । सब कुछ उससे ही होता है । यह भ्रान्ति है । यह टूटनी चाहिए। सब कुछ कर्म से नहीं होता। यदि सब कुछ कर्म से ही होता तो मोक्ष होता ही नहीं। आदमी कभी मुक्त नहीं हो पाता । चेतना का अस्तित्व ही नहीं होता। कर्म की अपनी एक सीमा है। वह उसी सीमा में अपना फल देता है, विपाक देता है । वह शक्ति की मर्यादा में ही काम करता है। व्यक्ति अच्छा या बुरा कर्म अजित करता है । वह फल देता है, पर कब देता है, उस पर भी बंधन है । उसकी मर्यादा है, सीमा है। मुक्त भाव से वह फल नहीं देता । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-ये उसकी सीमाएँ हैं। प्रत्येक कर्म का विपाक होता है। माना जाता है कि दर्शनावरणीय कर्म का विपाक होता है तब नींद आती है । मैं आपसे पूछना चाहता हूँ, अभी आपको नींद नहीं आ रही है । आप दत्तचित्त होकर प्रवचन सुन रहे हैं। तो क्या दर्शनावरणीय कर्म का उदय या विपाक समाप्त हो गया ? दिन में नींद नहीं आती तो क्या दिन में दर्शनावरणीय कर्म का उदय समाप्त हो गया ? रात को सोने का समय है। उस समय नींद आने लगती है, पहले नहीं आती। तो क्या दर्शनावरणीय कर्म का उदय समाप्त हो गया ? कर्म विद्यमान है, चालू है, पर वह विपाक देता है द्रव्य के साथ, काल और क्षेत्र के साथ । एक क्षेत्र में नींद बहुत आती है और दूसरे क्षेत्र में नींद नहीं आती। एक काल में नींद बहुत सताती है और दूसरे काल में नींद गायब हो जाती है । क्षेत्र और काल-दोनों निमित्त बनते हैं कर्म के विपाक में । बेचारे नारकीय जीवों को नींद कभी आती ही नहीं। कहाँ से पाएगी? वे इतनी सघन पीड़ा भोगते हैं कि नींद हराम हो जाती है। तो क्या यह मान लें कि नारकीय जीवों में दर्शनावरणीय कर्म समाप्त हो गया ? नहीं, उनमें दर्शनावरणीय कर्म का अस्तित्व है, पर क्षेत्र या वेदना का ऐसा प्रभाव है कि नींद आती ही नहीं । प्रत्येक कर्म द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, जन्म आदि-आदि परिस्थितियों के साथ अपना विपाक देता है । ये सारी कर्म की सीमाएँ हैं। कर्म सब कुछ नहीं करता । जब व्यक्ति जागरूक होता है तब किया हुआ कर्म भी टूटता सा लगता है। कर्म में कितना परिवर्तन होता है, इसको समझना चाहिए। भगवान् Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003842
Book TitleJinvani Special issue on Karmsiddhant Visheshank 1984
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages364
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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