________________
६६ ]
[ कर्म का सिद्धान्त
न कतत्वं न कर्माणि, लोकस्य सृजति प्रभु ।
न कर्म फल संयोगं, स्वभावास्तु प्रवर्तते ॥ हे अर्जुन ! न मैं कर्म करता हूं, न ही संसार को बनाता हूँ। जीवों को उनके कर्म का फल भी नहीं देता हूँ। इस संसार में जो भी कुछ हो रहा है, वह स्वभाव से ही हो रहा है। इससे स्पष्ट है कि न तो भगवान् संसार का निर्माण करते हैं और न ही कर्मों का फल ही देते हैं। कर्म एक प्रकार की शक्ति है । आत्मा, भी अपने प्रकार की एक शक्ति है। कर्म आत्मा करता है । जो कर्म उसने किए हैं । वे अपने-अपने स्वभावानुसार उसे फल देते हैं। यहां किसी भी न्यायाधीश की आवश्यकता नहीं। हमारे आत्मप्रदेशों में मिथ्यात्व, अविरति प्रमाद, कषाय और योग इन पांच निमित्तों से हलचल होती है। जिस क्षेत्र में आत्मप्रदेश हैं, उसी क्षेत्र में कर्म योग्य पुद्गल जीव के साथ बंध जाते । हैं कर्म का यह मेल दूध और पानी जैसा होता है। 'कर्म ग्रंथ' में कर्म का लक्षण बताते हुए कहा गया है -कीरइ जोएण हे उहि, जोग तो भण्णए कम्म' अर्थात् कषाय आदि कारणों से जीव के द्वारा जो किया जाता है, वह कर्म होता है। कर्म दो प्रकार के होते हैं। एक भाव कर्म और दूसरा द्रव्य कर्म । आत्मा में राग, द्वेष आदि जो विभाव हैं, वे भाव कर्म हैं। कर्म वर्गणा के पुद्गलों का सूक्ष्म विकार द्रव्य कर्म कहलाता है। भाव कर्म का कर्ता उपादान रूप से जीव है और द्रव्य कर्म से जीव निमित्त कारण होता है। निमित्त रूप से द्रव्य कर्म का कर्ता भी जीव ही है। भाव कर्म में द्रव्य कर्म निमित्त होता है और द्रव्य कर्म में भाव कर्म निमित्त होता है । इस प्रकार द्रव्य कर्म और भाव कर्म दोनों का परस्पर बीज और अंकुर की भांति कार्य-कारण भाव सम्बन्ध है।
संसार में जितने भी जीव हैं, आत्मस्वरूप की दृष्टि से सब एक समान हैं फिर भी वे भिन्न-भिन्न अनेक योनियों में, अनेक स्थितियों में शरीर धारण किए हुए हैं । एक अमीर है, दूसरा गरीब है । एक पंडित है, दूसरा अनपढ़ है। एक सबल है दूसरा निर्बल है। एक मां के उदर से जन्म लेने वाले दो बालकों में भी अन्तर देखा जाता है। अन्तर की इस विचित्रता में कोई न कोई कारण तो अवश्य ही है। वह कारण है कर्म । हमें सुख-दुःख का अनुभव होता है, वह तो प्रत्यक्ष दिखता है, किन्तु कर्म नहीं दिखते । जैन दर्शन में कर्म को पुद्गल रूप माना है। इसलिए वह साकार है, मूर्त है। कर्म के जो कार्य हैं वे भी मूर्त हैं। जहां कारण मूर्त होता है, वहां उसका कार्य भी मूर्त ही होगा । जैसे घड़ा है, वह मिट्टी से बनता है। इससे मिट्टी कारण है और घड़ा कार्य है। दोनों मूर्त हैं। जिस प्रकार मूर्त कारण की बात कही गई है, अमूर्त कार्य-कारण के लिए भी यही नियम है। जहां कारण अमूर्त होगा, वहां उसका कार्य भी अमूर्त होगा। ज्ञान का कारण आत्मा है, यहां ज्ञान और आत्मा दोनों अमूर्त हैं। आप पूछ सकते हैं कि जब अमूर्त से अमूर्त की ही उत्पत्ति होती है तो फिर मूर्त कर्मों से सुख
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org