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________________ ४८ प्रमेयकमलमार्त्तण्ड वादि देवसूरि और प्रभाचन्द्र - देवसूरि श्रीमुनिचन्द्रसूरिके शिष्य थे । प्रभावक चरित्र के लेखानुसार मुनिचन्द्रने शान्तिसूरिसे प्रमाणविद्याका अध्ययन किया था । ये प्राग्वाटवंशंके रत्न थे । इन्होंने वि० सं० ११४३ में गुर्जर देशको अपने जन्मसे पूत किया था । ये भडोच नगर में ९ वर्षकी अल्पवयमें वि० सं० ११५२ में दीक्षित हुए थे तथा वि० सं० १९७४ में इन्होंने आचार्यपद पाया था । राजर्षि कुमारपालके राज्यकाल में वि० सं० १२२६ में इनका स्वर्गवास हुआ । प्रसिद्ध है कि - वि० सं० ११८१ वैशाख शुद्ध पूर्णिमाके दिन सिद्धराजकी सभामें इनका दिगम्बरवादी कुमुदचन्द्रसे वाद हुआ था और इसी वादमें विजय पामेके कारण देवसूरि वादि देवसूरि कहे जाने लगे थे । इन्होंने प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार नामक सूत्र ग्रन्थ तथा इसी सूत्रकी स्याद्वादरत्नाकर नामक विस्तृत व्याख्या लिखी है । इनका प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कार माणिक्यनन्दिकृत परीक्षामुखसूत्रका अपने ढंग से किया गया दूसरा संस्करण ही है । इन्होंने परीक्षामुखके ६ परिच्छेदों का विषय ठीक उसी क्रमसे अपने सूत्रके आद्य ६ परिच्छेदों में यत्किञ्चित् शब्दभेद तथा अर्थभेदके साथ ग्रथित किया है । परीक्षामुखसे अतिरिक्त इसमें नयपरिच्छेद और वादपरिच्छेद नामक दो परिच्छेद और जोड़े गए हैं । माणिक्यनन्दिके सूत्रोंके सिवाय अकलङ्कके खविरृतियुक्त लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय तथा विद्यानन्दके तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकका भी पर्याप्त साहाय्य इस सूत्रग्रन्थ में लिया गया है । इस तरह भिन्न भिन्न ग्रन्थोंमें विशकलित जैनपदार्थोंका शब्द एवं अर्थदृष्टिसे सुन्दर संकलन इस सूत्रग्रन्थ में हुआ है । परीक्षामुखसूत्रपर प्रभाचन्द्रकृत प्रमेयकमलमार्त्तण्ड नामकी विस्तृत व्याख्या है तथा अलङ्कदेव लघीयस्त्रयपर इन्हीं प्रभाचन्द्रका न्यायकुमुदचन्द्र नामका बृहत्काय टीकाग्रन्थ है । प्रभाचन्द्रने इन मूल ग्रन्थोंकी व्याख्याके साथही साथ मूलग्रन्थसे सम्बद्ध विषयोंपर विस्तृत लेख भी लिखे हैं । इन लेखों में विविध विकल्पजालों से परपक्षका खंडन किया गया है । प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्याय - कुमुदचन्द्र के तीक्ष्ण एवं आह्लादक प्रकाशमें जब हम स्याद्वादरत्नाकरको तुलनात्मक दृष्टि से देखते हैं तब वादिदेवसूरिकी गुणग्राहिणी संग्रहदृष्टिकी प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकते । इनकी संग्राहक बीजबुद्धि प्रमेयकमलमार्त्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्रसे अर्थ शब्द और भावोंको इतने चेतश्चमत्कारक ढंगसे चुन लेती है कि अकेले स्याद्वादरत्नाकरके पढ़ लेनेसे न्यायकुमुदचन्द्र तथा प्रमेयकमलमार्त्तण्डका यावद्विषय विशद रीति से अवगत हो जाता है । वस्तुतः यह रत्नाकर उक्त दोनों ग्रन्थोंके शब्द - अर्थरत्नोंका सुन्दर आकर ही है । यह रत्नाकर मार्त्तण्डकी अपेक्षा चन्द्र ( न्यायकुमुदचन्द्र ) से ही अधिक उद्वेलित हुआ है । प्रकरणोंके क्रम और पूर्वपक्ष तथा उत्तरपक्षके जमानेकी पद्धति में कहीं कहीं तो न्यायकुमुदचन्द्रका इतना अधिक शब्दसादृश्य है कि दोनों ग्रन्थोंकी पाठशुद्धि में एक दूसरेका मूलप्रति की तरह उपयोग किया जा सकता है । १ देखो जैन साहित्यनो इतिहास पृ० २४८ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003838
Book TitlePramey Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrakumar Shastri
PublisherSatya Bhamabai Pandurang
Publication Year1941
Total Pages920
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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