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४० . प्रमेयकमलमार्तण्ड ई० ९७८ में समाप्त किया था। अतः आ० नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीका समय ई० ९८० के आसपास सुनिश्चित किया जा सकता है । और लगभग यही समय आचार्य अभयनन्दि आदिका होना चाहिए । इन्होंने अपनी महावृत्ति (लिखित पृ० २२१ ) में भर्तृहरि (ई० ६५०) की वाक्यपदीयका उल्लेख किया है। पृ० ३९३ में माघ (ई० ७ वीं सदी ) काव्यसे' 'सटाच्छटाभिन्न' श्लोक उद्धृत किया है । तथा ३।२।५५ की वृत्तिमें 'तत्त्वार्थवार्तिकमधीयते' प्रयोगसे अकलङ्कदेव ( ई० ८ वी सदी ) के तत्त्वार्थराजवार्तिकका उल्लेख किया है। अतः इनका समय ९ वीं शताब्दीसे' पहिले तो नहीं ही है। यदि यही अभयनन्दि जैनेन्द्र महावृत्तिके रचयिता हैं तो कहना होगा कि उन्होंने ई० ९६० के लगभग अपनी महावृत्ति बनाई होगी । इसी महावृत्ति पर ई० १०६० के लगभग आ० प्रभाचन्द्रने अपना शब्दाम्भोजभास्कर न्यास बनाया है। क्योंकि इसकी रचना न्यायकुमुदचन्द्रके बाद की गई है और न्यायकुमुदचन्द्र जयसिंहदेव ( राज्य १०५६ से ) के राज्य के प्रारम्भकाल में बनाया गया है।
मूलाचारकार और प्रभाचन्द्र-मूलाचार ग्रन्थके कर्ताके विषयमें विद्वान् मतभेद रखते हैं। कोई इसे कुन्दकुन्दकृत कहते हैं तो कोई वट्टकेरिकृत । जो हो, पर इतना निश्चित है कि मूलाचारकी सभी गाथाएँ खयं उसके कर्त्ताने नहीं रची हैं । उसमें अनेकों ऐसी प्राचीन गाथाएँ हैं, जो कुन्दकुन्दके ग्रन्थों में, भगवती आराधना, तथा आवश्यकनियुक्ति, पिण्डनियुक्ति और सम्मतितर्क आदि में भी पाई जाती हैं । संभव है कि गोम्मटसार की तरह यह भी एक संग्रह ग्रन्थ हो । ऐसे' संग्रहग्रन्थों में प्राचीन गाथाओंके साथ कुछ संग्रहकाररचित गाथाएँ भी होती हैं । गोम्मटसारमें बहुभाग स्वरचित है जब कि मूलाचारमें खरचित गाथाओंका बहुभाग नहीं मालूम होता । आ० प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदंचन्द्र (पृ० ८४५) में “एगो मे सस्सदो” “संजोगमूलं जीवेन" ये दो गाथाएँ उद्धृत की हैं। ये गाथाएँ मूलाचारमें ( २१४८,४९ ) दर्ज हैं। इनमें पहिली गाथा कुन्दकुन्दके भावपाहुड तथा नियमसारमें भी पाई जाती है। इसी तरह प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ. ३३१) में “आचेलकुद्देसिय" आदि गाथांश दशविध स्थितिकल्पका निर्देश करने के लिए उद्धृत है । यह गाथा मूलाचार (गाथा नं. ९०९ ) में तथा भगवती आराधनामें ( गाथा ४२१) विद्यमान है । यहाँ यह बात खास ध्यान देने योग्य है कि प्रभाचन्द्रने इस गाथाको श्वेताम्बर आगममें आचेलक्यके समर्थनका प्रमाण बताने के लिए श्वेताम्बर आगमके रूपमें उद्धृत किया है। यह गाथा जीतकल्पभाष्य (गा० १९७२) में पाई जाती है। गाथाओं की इस संक्रान्त स्थितिको देखते हुए यह सहज ही कहा जा सकता है कि-कुछ प्राचीन गाथाएँ परम्परासे चली आई हैं, जिन्हें दिग० और श्वेता. दोनों आचार्योंने अपने ग्रन्थों में स्थान दिया है।
नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्ती और प्रभाचन्द्र-आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती वीरसेनापति श्री चामुण्डरायके समकालीन थे। चामुण्डराय गंगव
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