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________________ ३४. प्रमेयकमलमार्तण्ड (ई. १०२५) में समाप्त किया था । अतः धनञ्जयका समय ई० १० वीं शताब्दीके बाद तो किसी भी तरह नहीं जा सकता। ३ आ० वीरसेनने अपनी धवलाटीका (अमरावतीकी प्रति पृ० ३८७) में धनञ्जयकी अनेकार्थनाममालाका निम्न लिखित श्लोक उद्धृत किया है "हेतावेवं प्रकारादौ व्यवच्छेदे विपर्यये। प्रादुर्भावे समाप्तौ च इतिशब्दं विदुर्बुधाः ॥" - आ. वीरसेनने धवलाटीकाकी समाप्ति शक ७३८ (ई० ८१६) में की थी। श्रीमान् प्रेमीजीने बनारसीविलास की उत्थानिका में लिखा है कि "ध्वन्यालोक के कर्ता आनन्दवर्धन, हरचरित्र के कर्ता रत्नाकर और जल्हण ने धनञ्जय की स्तुति की है ।" संस्कृत साहित्य के संक्षिप्त इतिहास में आनन्दवर्धन का समय ई०८४०-७०, एवं रत्नाकर का समय ई. ८५० तक निर्धारित किया है। अतः धनञ्जयका समय ८ वीं शताब्दीका उत्तरभाग और नवीं शताब्दीका पूर्वभाग सुनिश्चित होता है । धनञ्जयने अपनी नाममालाके "प्रमाणमकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । .. .. धनञ्जयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् ॥" इस श्लोकमें अकलङ्कदेवका नाम लिया है । अकलङ्कदेव ईसाकी ८ वीं सदीके आचार्य हैं अतः धनञ्जयका समय ८ वीं सदीका उत्तरार्ध और नवींका पूर्वार्ध मानना सुसंगत है। आचार्य प्रभाचन्द्रने अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० ४०२) में धनञ्जयके द्विसन्धानकाव्यका उल्लेख किया है । न्यायकुमुदचन्द्रमें इसी स्थल पर द्विसन्धानकी जगह त्रिसन्धान नाम लिया गया है। । रविभद्रशिष्य अनन्तवीर्य और प्रभाचन्द्र-रविभद्रपादोपजीवि अनन्तवीर्याचार्यकी सिद्धिविनिश्चयटीका समुपलब्ध है। ये अकलङ्कके प्रकरणोंके तलद्रष्टा, विवेचयिता, व्याख्याता और मर्मज्ञ थे। प्रभाचन्द्रने इनकी उक्तियोंसे ही दुरवगाह अकलङ्कवाङ्मयका सुत्रु अभ्यास और विवेचन किया था। प्रभाचन्द्र अनन्तवीर्यके प्रति अपनी कृतज्ञताका भाव न्यायकुमुदचन्द्रमें एकाधिक बार प्रदर्शित करते हैं । इनकी सिद्धिविनिश्चयटीका अकलंकवाायके टीकासाहित्यका शिरोरत्न है। उसमें सैकड़ों मतमतान्तरोंका उल्लेख करके उनका सविस्तर निरास किया गया है। इस टीकामें धर्मकीर्ति, अर्चट, धर्मोत्तर, प्रज्ञाकरगुप्त, आदि प्रसिद्ध प्रसिद्ध धर्मकीर्तिसाहित्यके व्याख्याकारोंके मत उनके ग्रन्थोंके लम्बे लम्बे अवतरण देकर उद्धृत किए गए हैं। यह टीका प्रभाचन्द्रके ग्रन्थों पर अपना • विचित्र प्रभाव रखती है । शान्तिसूरिने अपनी जैनतर्कवार्तिकवृत्ति (पृ० ९८) में 'एके अनन्तवीर्यादयः' पदसे संभवतः इन्हीं अनन्तवीर्यके मतका उल्लेख किया है। १ देखो धवलाटीका प्रथम भागकी प्रस्तावना पृ० ६२ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003838
Book TitlePramey Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrakumar Shastri
PublisherSatya Bhamabai Pandurang
Publication Year1941
Total Pages920
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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