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________________ प्रमेयकमलमार्तण्ड किए बिना नहीं रहते" हृदयको लगता है । यद्यपि ऐसे नकारात्मक प्रमाणों से किसी आचार्यके समयका स्वतन्त्र भावसे साधन बाधन नहीं होता फिर भी विचार की एक स्पष्ट कोटि तो उपस्थित हो ही जाती है। और जब विद्यानन्द के उल्लेखों के प्रकाश में इसका विचार करते हैं तब यह पर्याप्त पुष्ट मालूम होता है । समन्तभद्रकी आप्तमीमांसाके चौथे परिच्छेदमें वर्णित "विरूपकार्यारम्भाय" आदि कारिकाओंके पूर्वपक्षों की समीक्षा करनेसे ज्ञात होता है कि समन्तभद्रके सामने संभवतः दिग्नागके ग्रन्थ भी रहे हैं । बौद्धदर्शन की इतनी स्पष्ट विचारधाराकी सम्भावना दिग्नागसे पहिले नहीं की जा सकती। - हेतुबिन्दुके अर्चटकृत विवरणमें समन्तभद्रकी आप्तमीमांसाकी "द्रव्यपर्याययोरैक्यं तयोरव्यतिरेकतः" कारिकाके खंडन करनेवाले ३०-३५ श्लोक उद्धृत किए गए हैं। ये श्लोक दुर्वेकमिश्र की हेतुबिन्दुटीकानुटीका के लेखानुसार स्वयं अर्चटने ही बनाए हैं। अर्चटका समय ९ वीं सदी है। कुमारिलके मीमांसाश्लोकवार्तिकमें समन्तभद्रकी “घटमौलिसुवर्णार्थी” कारिकासे समानता रखनेवाले निम्न श्लोक पाये जाते हैं "वर्धमानकभङ्गे च रुचकः क्रियते यदा। तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः॥ हेमार्थिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् । न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम् ॥ स्थित्या विना न माध्यस्थ्यं तेन सामान्यनित्यता ॥" [मी० श्लो० पृ० ६१९ ] कुमारिलका समय ईसाकी ७ वीं सदी है । अतः समन्तभद्रकी उत्तरावधि सातवीं सदी मानी जा सकती है। पूर्वावधिका नियामक प्रमाण दिग्नागका समय होना चाहिए। इस तरह समन्तभद्रका समय इसाकी ५ वीं और सातवीं शताब्दीका मध्यभाग अधिक संभव है। यदि विद्यानन्दके उल्लेखमें ऐतिहासिक दृष्टि भी निविष्ट है तो समन्तभद्रकी स्थिति पूज्यपादके बाद या समसमय में होनी चाहिए । - पूज्यपाद के जैनेन्द्रव्याकरण के अभयनन्दिसम्मत प्राचीनसूत्रपाठ में “चतुष्टयं समन्तभद्रस्य" सूत्र पाया जाता है। इस सूत्र में यदि इन्हीं समन्तभद्र का निर्देश है तो इसका निर्वाह समन्तभद्रको पूज्यपाद का समकालीनवृद्ध मानकर भी किया जा सकता है। - पूज्यपाद और प्रभाचन्द्र-आ. देवनन्दिका अपर नाम पूज्यपाद था। ये विक्रम की पांचवी और छठी सदीके ख्यात आचार्य थे। आ० प्रभाचन्द्रने पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि पर तत्त्वार्थवृत्तिपदविवरण नामकी लघुवृत्ति लिखी है। इसके सिवाय इन्होंने जैनेन्द्रव्याकरण पर शब्दाम्भोजभास्कर नामका न्यास - १ देखो अनेकान्त वर्ष १ पृ० १९७। प्रेमी जी सूचित करते हैं कि इसकी प्रति बंबईके ऐलक पन्नालालसरस्वती भवनमें मौजूद है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003838
Book TitlePramey Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrakumar Shastri
PublisherSatya Bhamabai Pandurang
Publication Year1941
Total Pages920
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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