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________________ २८ प्रमेयकमलमार्तण्ड गुणमयी भाषाने प्रभाचन्द्रको अत्यधिक आकृष्ट किया है। यों तो प्रभाचन्द्रके प्रायः प्रत्येक प्रकरणपर कमलशीलकी पञ्जिका अपना उन्मुक्त प्रभाव रखती है पर इसके लिए षट्पदार्थपरीक्षा, शब्दब्रह्मपरीक्षा, ईश्वरपरीक्षा, प्रकृतिपरीक्षा, शब्दनित्यत्वपरीक्षा आदि परीक्षाएँ खास तौरसे द्रष्टव्य हैं । तत्त्वसंग्रहकी सर्वज्ञपरीक्षामें कुमारिलकी पचासों कारिकाएँ उद्धृत कर पूर्वपक्ष किया गया है । इनमेंसे अनेकों कारिकाएँ ऐसी हैं जो कुमारिलके श्लोकवार्तिकमें नहीं पाइ जातीं। कुछ ऐसी ही कारिकाएँ प्रभाचन्द्रके प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें भी उद्धृत हैं। संभव है कि ये कारिकाएँ कुमारिलके ग्रन्थसे न लेकर तत्त्वसंग्रहसे ही ली गई हों। तात्पर्य यह कि प्रभाचन्द्रके आधारभूत ग्रन्थोंमें तत्त्वसंग्रह और उसकी पञ्जिका अग्रस्थान पानेके योग्य है। __ अर्चट और प्रभाचन्द्र-धर्मकीर्तिके हेतुबिन्दु पर अर्चटकृत टीका उपलब्ध है। इसका उल्लेख अनन्तवीर्यने अपनी सिद्धिविनिश्चयटीकामें अनेकों स्थलोंमें किया है । 'हेतुलक्षणसिद्धि' में तो धर्मकीर्तिके हेतुबिन्दुके साथही साथ अर्चटकृत विवरणका भी खण्डन है। अर्चटका समय भी करीब ईसाकी ९ वीं शताब्दी होना चाहिये । अर्चटने अपने हेतुबिन्दुविवरणमें सहकारिख दो प्रकारका बताया है-१ एकार्थकारिख, २ परस्परातिशयाधायकल । आ० प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० १०) में कारकसाकल्यवादकी समीक्षा करते समय सहकारिखके यही दो विकल्प किये हैं। धर्मोत्तर और प्रभाचन्द्र-धर्मकीर्तिके न्यायबिन्दु पर आ० धर्मोत्तरने टीका रची है। भिक्षु राहुलजी द्वारा लिखित टिबेटियन गुरुपरम्पराके अनुसार इनका समय ई० ७२५ के आसपास है। आ० प्रभाचन्द्रने अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० २) तथा न्यायकुमुदचन्द्र (पृ. २०) में सम्बन्ध, अभिधेय, शक्यानुष्ठानेष्टप्रयोजनरूप अनुबन्धत्रयकी चर्चा में, जो उन्मत्तवाक्य, काकदन्तपरीक्षा, मातृविवाहोपदेश तथा सर्वज्वरहरतक्षकचूडारत्नालङ्कारोपदेशके उदाहरण दिए हैं वे धर्मोत्तरकी न्यायबिन्दुटीका (पृ. २) के प्रभावसे अछूते नहीं हैं । इनकी शब्दरचना करीब करीब एक जैसी है। इसी तरह न्यायकुमुदचन्द्र (पृ. २६) में प्रत्यक्ष शब्दकी व्याख्या करते समय अक्षाश्रितलको प्रत्यक्षशब्दका व्युत्पत्तिनिमित्त बताया है और अक्षाश्रितलोपलक्षित अर्थसाक्षात्कारिख को प्रवृत्तिनिमित्त । ये प्रकार भी न्यायबिन्दुटीका (पृ० ११) से अक्षरशः मिलते हैं। ....... . . . . . .. शानश्री और प्रभाचन्द्र-ज्ञानश्रीने क्षणभंगाध्याय आदि अनेक प्रकरण लिखे हैं। उदयनाचार्य ने अपने आत्मतत्त्वविवेकमें ज्ञानश्रीके क्षणभंमाध्यायका नामोल्लेखपूर्वक आनुपूर्वी से खंडन किया है । उदयनाचार्यने अपनी लक्षणावली ताम्बरांक (९०६) शक, ई० ९८४ में समाप्त की थी । अतः ज्ञानश्रीका १ देखो वादन्यायका परिशिष्ट। .. ... ... ... . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003838
Book TitlePramey Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrakumar Shastri
PublisherSatya Bhamabai Pandurang
Publication Year1941
Total Pages920
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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