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________________ प्रमेयकमलमार्तण्ड उभयजज्ञानका स्पष्ट समर्थन है, अतः यह मत व्योमशिवाचार्यका हो सकता है। व्योमवतीमें न केवल उभयजज्ञानका समर्थन ही है किन्तु उसका व्यवच्छेद भी अव्यपदेश्य पदसे किया है। हाँ, उसपर जो व्याख्याकार की अनुपपत्ति है वह कदाचित् वाचस्पतिकी तरफ लग सकती है; सो भी ठीक नहीं; क्योंकि वाचस्पतिने अपने गुरुकी जिस गाथाके अनुसार उभयजज्ञानको ऐन्द्रियक माना है, उससे साफ मालूम होता है कि वाचस्पतिके गुरुके सामने उभयजज्ञानको माननेवाले आचार्य (संभवतः व्योमशिवाचार्य) की परम्परा थी, जिसका खण्डन वाचस्पतिके गुरुने किया । और जिस खण्डनको वाचस्पतिने अपने गुरुकी गाथाका प्रमाण देकर तात्पर्य-टीकामें स्थान दिया है। इसी तरह तात्पर्य-टीकामें (पृ० १०२) 'यदा ज्ञानं तदा हानोपादानोपेक्षाबुद्धयः फलम्' इस भाष्यका व्याख्यान करते हुए वाचस्पति मिश्रने उपादेयताज्ञानको 'उपादान' पदसे लिया है और उसका क्रम भी 'तोयालोचन, तोयविकल्प, दृष्टतजातीयसंस्कारोबोध, स्मरण, 'तज्जातीयं चेदम्' इत्याकारकपरामर्श' इत्यादि बताया है। . न्यायमंजरी (पृ० ६६ ) में इसी प्रकरणमें शङ्का की है कि-'प्रथम आलोचनज्ञानका फल उपादानादिबुद्धि नहीं हो सकती; क्योंकि उसमें कई क्षणोंका व्यवधान पड़ जाता हैं ? इसका उत्तर देते हुए मंजरीकारने 'आचार्याः' शब्द लिखकर 'उपादेयताज्ञानको उपादानबुद्धि कहते हैं' इस मतका उल्लेख किया है। इस 'आचार्याः' पद पर भी म० म० गङ्गाधर शास्त्रीने 'न्यायवार्तिक-तात्पर्यटीकायां वाचस्पति मिश्राः' ऐसा टिप्पण किया है । न्यायमञ्जरीके द्वितीय संस्करणके संपादक पं० सूर्यनारायणजी न्यायाचार्य ने भी उन्हींका अनुसरण करके उसे बड़े टाइपमें हेडिंग देकर छपाया है । मंजरीकारने इस मतके बाद भी एक व्याख्याताका मत दिया है । जो इस परामर्शात्मक उपादेयताज्ञानको नहीं मानता। यहाँ भी यह विचारणीय है कि-यह मत स्वयं वाचस्पतिका है या उनके पूर्ववर्ती उनके गुरुका ? यद्यपि यहाँ उन्होंने अपने गुरुका नाम नहीं लिया है, तथापि जब व्योमवती* जैसी प्रशस्तपादकी प्राचीन टीका (पृ० ५६१) मे इसका स्पष्ट समर्थन है, तब इस मतकी परम्परा भी प्राचीन ही मानना होगी और 'आचार्याः' पदसे' वाचस्पति न लिए जाकर व्योमशिव जैसे कोई प्राचीन आचार्य लेना होंगे। मालूम होता है म. म. गङ्गाधर शास्त्रीने "जातश्च सम्बद्धं चेत्येकः काल:' इस वचनको वाचस्पतिका माननेके कारण ही उक्त दो स्थलों में 'आचार्याः' पद पर 'वाचस्पति मिश्रा' ऐसी * "द्रव्यादिजातीयस्य पूर्व सुखदुःखसाधनत्वोपलब्धेः तज्ज्ञानानन्तरं यद्यत् द्रव्यादिजातीयं तत्तत्सुखसाधनमित्यविनाभावस्मरणम् , तथा चेदं द्रव्यादिजातीयमिति परामर्शज्ञानम् , तस्मात् सुखसाधनमिति विनिश्चयः तत उपादेयशानम्..."-प्रश. व्यो० पृ० ५६१ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003838
Book TitlePramey Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrakumar Shastri
PublisherSatya Bhamabai Pandurang
Publication Year1941
Total Pages920
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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