SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करणानुयोग-प्रवेशिका उ०- एक चन्द्रमा के परिवार में एक सूर्य, छियासठ हजार नौसौ पचहत्तर कोड़ाकोड़ी तारे हैं । १८ ग्रह, अट्ठाईस नक्षत्र और ९४. प्र० - ज्योतिष्क देवोंका विशेष स्वरूप क्या है ? उ० - मनुष्य लोक अर्थात् अढ़ाई द्वीप और दो समुद्रोंमें ज्योतिष्क विमान मेरुपर्वतसे ग्यारह सौ इक्कीस योजन दूर रहकर सदा उसके चारों ओर घूमा करते हैं । इनके घूमनेसे हो दिन रात होता है । सूर्यका गमन क्षेत्र एक सौ अस्सी योजन जम्बूद्वीप में है और तीन सौ तीस योजन लवणसमुद्र में है । एक सौ तिरासी दिन में सूर्य अपने गमन क्षेत्रको पूरा करता है। श्रावण मासमें सूर्य एकदम अन्दर होता है और फिर बाहर की ओर गमन करना प्रारम्भ कर देता है, इसीको दक्षिणायन कहते हैं । माघ मास में सूर्यं एकदम बाहर होता है और फिर बाहर से अन्दरकी ओर आना शुरू करता है । इसोको उत्तरायण कहते हैं । जब सूर्य एकदम अभ्यन्तरमें होता है तब १८ मुहूर्त ( करीब साढ़े चौदह घंटे) का दिन और बारह मुहूर्त ( साढ़े नौ घंटे ) की रात होती है और जब एकदम बाहर होता है तो १८ मुहूर्त की रात और बारह मुहूर्तका दिन होता है । प्रचलित चान्द्रमासके अनुसार इकसठवें दिन एक तिथिके घटने से वर्ष में तीन सौ चौवन दिन होते हैं जबकि सौर मासके हिसाब से वर्ष में तीन सौ छियासठ दिन होते हैं । अतः वर्ष में बारह दिन बढ़नेसे अढ़ाई वर्ष बीतने पर एक मास अधिक होता है और वर्ष में तेरह मास होते हैं । मनुष्य लोकसे बाहर भी ज्योतिष्क देव हैं किन्तु वे चलते नहीं हैं, स्थिर हैं । ९५. प्र० – ज्योतिष्क देवोंकी आयु कितनी है ? उ० ० – ज्योतिष्क देवोंकी उत्कृष्ट आयु एक पल्यसे अधिक है और जघन्य आयु पल्यके आठवें भाग है । ९६. प्र० - सिद्धों का क्षेत्र कहाँ पर है ? उ०- तीनों लोकोंके ऊपर ईषत्प्राग्भार नामकी आठवीं पृथिवी है, उसके मध्य में श्वेत छत्रके आकारका गोल और मनुष्य लोकके समान पैंतालीस लाख योजन चौड़ा सिद्धक्षेत्र है । उसके ऊपर तनुवातवलय में सिद्ध भगवान् विराजमान रहते हैं । ९७. प्र० - वातवलयका स्वरूप क्या है ? उ०- जैसे वृक्षको छाल होती है वैसे ही लोकको घेरे हुए वातवलय हैंवलय के आकार वायु हैं। वे तीन हैं - लोकके घेरे हुए घनोदधिवातका वलय है, उसके ऊपर घनवातका वलय है और उसके ऊपर तनुवातका वलय है । लोकके नीचे और पाश्र्वोंमें नीचे से लगाकर एक राजूकी ऊँचाई पर्यन्त एक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003835
Book TitleKarnanuyog Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1987
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy