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[ जैन कथा संग्रह
सेठ ने हुक्म दिया कि - " बब्बरकोट बन्दरगाह पर जहाजों के लंगर डाल दिये जावें ।"
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जहाज बब्बरकोट पर ठहरे । वहाँ राजा के सिपाहियों ने महसूल माँगा । धबल सेठ ने कहा - " महसूल काहे का ?" हमें यहाँ कौनसा व्यापार करना है जो तुम्हें महसूल दें ?" इस बात पर बड़ी तकरार हुई किन्तु धबल सेठ न माने । अब तो राजा ने सेना भेजी, जिसने आकर धबल सेठ को पकड़ लिया और एक वृक्ष से उल्टा लटका दिया । श्रीपाल ने सोचा, कि - " सेठ ने यह बुरा काम किया । जो महसूल नहीं दिया । अब ये जान से मारे जायेंगे, साथ ही सब जहाज भी जब्त हो जायेंगे ।" यों सोचकर, लश्कर के सामने आ उसे ललकारते हुए बोले- कि "खबरदार, धबल सेठ का बाल भी अगर छू लिया, तो खैरियत मत समझना । अभी तुम लोगों ने श्रीपाल का मजा नहीं चखा है ।" यों कहकर, वे सेना की तरफ झपटे ।
भारी युद्ध मचगया, किन्तु श्रीपाल के शरीर में उस विद्या के प्रभाव से चोट ही न पहुँची थी। इधर सेना के मनुष्य धड़ाधड़ जमीन पर गिरने लगे । थोड़ी ही देर में तो सारा लश्कर छिन्न-भिन्न हो गया । श्रीपाल ने धबन सेठ को छुड़ा दिया । धवल सेठ ने अपना जीवन बचाने के बदले में आधे जहाज श्रीपाल को दे दिये ।
रकोट के राजा को जब इस पराक्रमी - पुरुष का पता चला, तो उसने इनका बड़ा स्वागत किया और अपनी कन्या श्रीपाल को विवाह दी ।
जब धबल सेठ ने श्रीपाल से कहा कि"श्रीपाल जी, रत्नद्वीप अभी बहुत दूर है और यहां रुकने से नुकसान होगा । अतः शीघ्र ही विदाई लीजिये ।" श्रीपाल ने अपनी स्त्री के साथ
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