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[ जैन कथा संग्रह
सेना की भरती होने लगी। दूर से वीर आने लगे। सब अपने कर्तव्य में अनूठे थे। कोई तलवार का धनी था तो कोई तीर से निशाना लगाने में कुशल, बूढ़ों में भी युवकों का बल था, मातभमि पर मर मिटने को चाह थी । बात की बात में एक बड़ी सेना तैयार हो गई।
___ भामाशाह ने कमर कसी, इस युद्ध वीर का उत्साह और उमंग युवकों को भी मात करता था। उनकी मौजूदगी में निराशा और कायरता ठहर नहीं सकती थी।
धीरे-धीरे महाराणा एक के बाद एक किल्ला जीतने लगे। शेरपुर के बाद. दिलवाड़े का नम्बर आया । दिलवाड़े में भयंकर युद्ध हुआ । शत्रु के सरदार शाहबाजखाँ के साथ भामाशाह का द्वन्द युद्ध हुआ। भामाशाह ने एक ही झटके में उसके हाथ काट डाले और साथ ही उसकी तलवार के भी टुकड़े उड़ा दिये, बेचारे को जान बचाकर भागना पड़ा । इसके बाद भामाशाह ने कुभलमेर पर विजय प्राप्त की, भामाशाह के त्याग (महाराणा को धनदान) एवं दान वीरता तो सर्व विदित है पर वे युद्ध वीर भी था।
इस प्रकार बहुत से किल्लों पर विजय प्राप्त हुई। बहुत से नगर राणा के कबजे में आ गये। लगभग समस्त मेवाड़ पर राणा की विजय पताका फहराने लगी । परन्तु चित्तौड़, अजमेर, मांडवगढ़ पर अब भी अकबर का ही अधिकार रहा । भामाशाह का भाई ताराचन्द कावेडिया भी बड़ा वीर था।
राणा प्रताप ने एक बड़ा दरबार किया। उसमें सभी को यथावत् योग्य सम्मान दिया गया। किसी को जागीर, किसी को पदवी, किसी को पगड़ी, और किसी को पालकी दो गई । सबकी सेवा और वीरता की प्रशंसा की गई। भामाशाह के विषय में राणा ने कहा-भामाशाह तो एक आद्वतीय त्यागी हैं, अद्भुत वीर हैं और अपूर्व देशभक्त हैं।
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