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[ जैन कथा संग्रह भाग्य की बलिहारी है, कि चित्रावेली हाय से जाते ही स्वर्ण-सिद्धि प्राप्त हो गई।
___एक बार नगर में एक विद्वान आचार्य पधारे । पेथड़कुमार ने उन्हें भक्ति-पूर्वक वन्दना करके पूछा, कि-"गुरुदेव ! मेरे पांच-लाख रुपये रखने की सीमा है, किन्तु धन उससे बहुत अधिक होगया है। अतः आप बतलाइये, कि मैं उसे किस काम में खर्च करूं ?" मुनिराज बोले कि--"महानुभाव ! इस समय मन्दिरों का बनवाना सबसे अच्छा काम है, अतः तुम अपना धन उसीमें लगाओ।" पेथड़. कुमार को यह बात ठोक मालूम हुई अतः उन्होंने अठारह लाख रुपये खर्च करके मांडवगढ़ में एक भव्य-मन्दिर बनवाया। देवगिरि में भी एक सुन्दर जैन-मन्दिर तैयार करवाया और फिर भिन्न-भिन्न स्थानों पर बहुत से मन्दिर बनवाये । कहा जाता है, कि उन्होंने सब मिलाकर चौरासी मन्दिर बनवाये थे।
पेथड़कुमार को अपने धर्म-बन्धुओं से बड़ा प्रेम था। उन्हें जब कोई भी स्वधर्मी मिल जाता, तो वे बड़े प्रसन्न हो उठते । ऐसे समय में यदि वे घोड़े पर बैठे होते तो नीचे उतरकर उस स्वधर्मी बन्धु का सम्मान करते थे। अपने धर्म-बन्धुओं की आर्थिक-स्थिति सुधारने के लिये उन्होंने गुप्त-दान भी बहुत दिये।
उन्होंने बत्तीस वर्ष की अवस्था में अपनी स्त्री सहित ब्रह्मचर्यब्रत धारण कर लिया और उसे ऐसी शुद्धता तथा दृढ़ता से पाला कि उसका बड़ा विचित्र प्रभाव पड़ने लगा । यहाँ तक कि जो भी मनुष्य, रोग-शोक से पीड़ित हों और उनका कपड़ा ओढ़ लें, तो उनके रोग जाय-शोक मिट जावें।
एक बार, जयसिंह को रानी लीलावती को बड़े जोर से
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