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[ जैन कथा संग्रह इस समय मालवे का मांडवगढ़ एक जबरदस्त शहर था। वहाँ हजारों धनी-मानी लोग रहते थे, जो करोड़ों का व्यापार करते थे। पेथड़कुमार ने विचारा, कि मुझे मांडवगढ़ जाना चाहिये, वहाँ मैं आसानी से अपना निर्वाह कर सकूगा । यों सोचकर, वे मांडवगढ़ आये।
यहां आकर, बाप-बेटे ने घो को दुकान करलो । आस-पास के ग्रामों की ग्वालिने घी बेचने आती थीं, उनसे खरीदकर, उसे ये अपनी दुकान पर बेचते थे । उनको दुकान पर चाहे बच्चा आवे या बुढ्ढा, सबको एक ही भाव दिया जाता था । इसके अतिरिक्त, माल में वे सेल-तेल भी नहीं करते थे। जैसा माल बतलाते थे, वैसा हो देते थे । इसी कारण थोड़े ही दिनों में उनकी अच्छो साख जम गई।
एक बार एक ग्वालिन घी की मटकी लेकर पेंथड़कुमार की दुकान पर आई और पूछा, कि--- "सेठजी ! आपको घी चाहिये क्या ?" पेथड़कुमार ने घी लेकर देखा, तो वह बड़ा ही सुगन्धित और दानेदार था। उन्होंने ग्वालिन से कहा, कि-हां, मैं ले लगा।" ग्वालिन ने अपना बर्तन पेथड़कुमार को सौंप दिया और वे उसमें से घो निकाल कर तौलने लगे। पेथडकुमार उस बर्तन में से घी निकालते ही जाते थे, किन्तु उस बर्तन का घी कम न होता था। यह देखकर उन्होंने विचारा कि अवश्य ही इस बर्तन में कोई करामात है । अतः उन्होंने बर्तन को ऊपर उठाया । ऊपर ऊठाते ही उन्हें उसके पेंदे में एक बेल की गोल इंढाणी दिखाई दी। पेथडकुमार समझ गये, कि निश्चय ही यह चित्रा-बेली है। उसके अतिरिक्त और किसी चीज से बर्तन में इतना बढ़ नहीं सकता। यों सोचकर उन्होंने ग्वालिन से उस इंढाणी सहित घी का बर्तन खरीद लिया। अच्छा दाम पाकर ग्वालिन चली गई और पेथडकुमार तथा झांझण बड़े प्रसन्न हुए।
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