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________________ विमलशाह ] [ १११ देखकर मन ही मन खूब जलते तथा डाह करते थे । माता वीरमती को जब यह बात मालूम हुई तो वे विचारने लगो, कि - " विमल के शत्रु इस शहर में बहुत हैं, अतः जबतक वह पूरा शक्तिशाली न हो जाय, तबतक मुझे कहीं दूसरी जगह जाकर रहना चाहिये ।" यों सोचकर वे अपने साथ विमल को ले अपने पीहर को चली गई । उनके पीहर में बड़ी गरीबी थी । यहाँ तक कि घर के बूढ़े मनुष्य भी मिहनत-मजदूरी करते, तभी खाने का गुजर चलता था। इसी कारण वीरमती के भाई को वीरमती तथा विमल का माना अच्छा न मालूम हुआ, किन्तु बहिन को नहीं आने देने की कैसे कही जा सकती थी ? अतः उनका आदर सत्कार करना ही पड़ा । रमती तथा विमल वहीं रहने लगे । ( ३ ) पाटण के वीर मन्त्री का पुत्र विमल, अब गरीबी में पलने गा । वह किसी समय खेत में जाता और मामा की खेती के काम : " मदद करती । कभी घोड़ी, बछेरा अथवा गाय भैंस लेकर जंगल जाता और वहाँ उन्हें घास चराता । उसे न तो इनकार ही था और न कुछ अफसोस ही होता, उसे बड़ा आनन्द आता । ऐसा काम करने उलटा इस काम जब वह जंगल में जाता तो तीरकमान चलाता, घोड़े पर वारी करता, झाड़ों पर चढ़ता और तालाब में तैरता था । दिन र इसी तरह आनन्द लूटकर शाम को वह अपने घर लौट ता । इस प्रकार का जीवन व्यतीत करने के कारण विमल का रीर बड़ा हृष्ट-पुष्ट होगया । वाण-विद्या में तो यह अद्वितीय ।। धीरे-धीरे उसकी वाण -विद्या की प्रशंसा सब जगह होने । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003828
Book TitleJain Granth Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Agarchand Nahta
PublisherPushya Swarna Gyanpith Jaipur
Publication Year1978
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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