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राजा संप्रति ]
[ ६७ माता ने उत्तर दिया-बेटा, तुमने संसार के राजाधिराजों पर विजय प्राप्त की है, परन्तु यह सच्ची विजय नहीं हैं। इसमें सच्चा सुख नहीं हैं । महाराज संप्रति ने आश्चर्य के साथ पूछाक्यों मां, दिगविजयी होने में भी सच्चा सुख नहीं, तो फिर सुख कहां है ? ___ माता ने उत्तर दिया-बेटा, इस विजय में तुमने लाखों मनुष्यों का बध किया है, खून की नदियां बहाई हैं। पाप की गठरी सिर पर रखी है । फिर भला इसमें सुख कहाँ से आया ? तुम्हारी इस विजय से खुशी कैसे हो सकती है ? मैं तो तभी खुश हो सकती हूँ जब संसार में शान्ति की स्थापना करोगे, और अपने भीतर के शत्रओं पर विजय प्राप्त करोगे ! माता का यह उपदेश संप्रति के अन्तःकरण तक पहुँच गया। उसका एक-एक शब्द उनके हृदय-पटल पर अंकित हो गया।
एकबार जब महाराजा संप्रति उज्जयनी नगरी में रहते थे, 'वे महल के खिड़की में बैठे हुए शहर को शोभा देख रहे थे। इसी समय 'जीवंत स्वामी महवीर प्रतिमा का एक बड़ा जुलूस उस ओर से निकला। उसमें सैकड़ों साधु और बालकों के अतिरिक्त आर्य-सुहस्ति नामक एक महान आचार्य भी सम्मिलित थे।
महाराजा संप्रति ने जब आचार्य-आर्य सुहस्ति को देखा तो उन्हें कुछ ऐसा भास प्रतीत होने लगा कि उन्हें मैंन कहीं पहले भी देखा है, परन्तु कहाँ देखा है ? यह याद नहीं आ रहा है । यही सोचते-सोचते उन्हें मूर्छा आगई और जाति-स्मरण ज्ञान होगया। उन्होंने उसी दशा में देखा कि वे उनके पूर्वभव के गुरू हैं । यह याद आते ही महाराजा महल से नीचे उतरे और आचार्य के चरणों में प्रणाम करके पूछा-गुरुदेव, आप मुझे पहचानते हैं ? आचार्य ने उत्तर दिया-राजन, तुम्हें कौन नहीं
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