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राजा संप्रति ]
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हो में)। यह सुनकर राजा ने कहा-अच्छा, यह राज्य आज से मैं तुम्हारे संप्रति जन्मे हुए पुत्र को देता हूँ।
उस दिन से कुणाल के पुत्र का नाम ही संप्रति पड़ गया । थोड़े दिन बाद ही वह पाटलीपुत्र लाया गया और बाल्यावस्था में ही उसका राज्याभिषेक किया गया।
पूत के पैर पालने में ही पहिचान लिये जाते हैं। संप्रति बाल्या. वस्था से ही अपने पराक्रम का परिचय देने लगा। अश्वारोहण, वाण विद्या में, मल्ल कुश्ती में, वीरता के प्रत्येक कार्य में वह थकता न था, सब में बेजोड़ था। एक बार सब कुटुम्बीजन बैठे बातें कर रहे थे। बातों में किसी ने कहा-महाराज अशोक ने समस्त देशों पर विजय प्राप्त करके चक्रवर्ती की पदवी प्राप्त की है। यह सुनकर संप्रति ने कहा, ओहो, यह तो कुछ अच्छा नहीं हुआ। तब तो मेरे लिये विजय करने को तो कुछ रहा ही नहीं। उसकी यह बात सुनकर सबको अत्यन्त प्रसन्नता हई। सबको विश्वास होगया कि समय आने पर यह अवश्य ही प्रतापी राजा होगा।
१६ वर्ष की आयु होने पर उसका शरीर भली भांति विकसित होगया। उसका मुख पूर्णिमा के चन्द्र के समान सुन्दर व गोल था। आँखें बडी-बड़ी और तेजयुक्त थीं। मस्तक विशाल और बाहे घुटनों तक लंबे थे । स्वर मधुर परन्तु दृढ़ था। उसका तेज अद्वितीय था। उसको कड़ी निगाह से मनुष्य थर-थर कांपने लगते थे । यूवाअवस्था में पदार्पण करते ही संप्रति ने अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित होकर दीर्घ सेना के साथ चर्दिग-विजय के लिये प्रस्थान कर दिया। उसने कौशल देश जीता और काशी पर विजय प्राप्त की। पंचाल को आधीन किया, और कुरू पर अधिकार जमाया। चतुर्दिक उसकी विजेयपताका फहराने लगी। महाराजा संप्रति भारत-भू के भूषण माने जाने लगे।
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