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१३-महाराजा-संप्रति
( १ ) पाटलीपुत्र में घर-घर, गली और मुहल्ले-मुहल्ले में सूरदास के संगीत की चर्चा हो रही थी। वह जहां-जहाँ जाकर अपनी सारंगी छेड़ता, वहीं लोगों की भीड़ जमा होजाती, और सब मन्त्रमुग्ध की भांति निश्चल होजाते थे । क्या मजाल कोई खाँस तो ले । समस्त पाटली. पुत्र को उसके संगीत ने पागल बना दिया था। वृद्ध भी उसके अनुपम संगीत पर मुग्ध थे और बालक भी। स्त्रियां भी और पुरुष भी।
पाटलीपुत्र के शासक महाराज अशोक को जब मालूम हुआ कि शहर में कोई अद्भुत संगीतकार आया है, तो उन्होंने उसे बुला लाने के लिये दो मन्त्रियों के साथ पालकी भेजी और उनसे कहा कि सूरदास को सम्मान पूर्वक राजसभा में लिवा लाओ। कलाकार का जितना आदर किया जाय, उतना ही कम है।
मन्त्रियों ने सूरदास के पास जाकर नम्रता पूर्वक कहा-महाराज, आपके लिये महाराजा अशोक ने निमन्त्रण भेजा है, राजसभा में पधारिये । सूरदास राजसभा में आये और राजा को कहलाया कि मैं पर्दे के पीछे रहकर संगीत सुनाऊँगा। आपकी इच्छा हो तो आज्ञा करें। राजा ने उत्तर दिया-हम किसी प्रकार भी इनके मन को दुखाना नहीं चाहते । खुशी से ये अपनी इच्छानुसार पर्दे के पीछे गा सकते हैं । सूरदास ने सारंगी छेड़ी। सारंगी के तारों के साथ-साथ सभाजनों के हृदय भी झंकृत हो उठे। समस्त सभा संगीत में तल्लीन होगई। राजा ने भी कभी इतना सुन्दर संगीत न सुना था। एक गीत पूरा हुआ पर राजा की पिपासा शान्त न हुई । अमृतपान से
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