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वर्तमान कालमें क्रियाएँ प्रायः शुष्क (भाव रहित ) और अविवेक पूर्ण ही की जाती, देखी जाती हैं, यही कारण है कि अधिकांश लोगोंको इसमें (पूजादि) दिलचस्पी नहीं मालुम देती।
और किसी भी काममें बिना रस पड़े (दिलचस्पी मालुम दिये ) उस कामको करने को जी नहीं चाहता, बस, जिससे वे इस तत्व (पूजादि ) को समझ और इसमें उनको अनुराग हो यही इस पुस्तक को प्रकाशित करने का उद्देश्य है।
बहुत अरसे से मेरा यह विचार था हो, कि मैं इस सम्बन्ध में एक भावपूर्ण निबन्ध लिखं सुयोग्यवश अबकी बार जब मैं बीकानेर गया तो मुनिवर्य श्रीप्रधानविजयजी ने मुझे तीन लेखों का भाषान्तर छपवाने के लिये कहा, उक्त लेखोंमें अपने उद्देश्यकी पूर्ति होते देख मैंने उपरोक्त निबन्ध लिखने के विचार को छाड़, इन्हीं लेखों की पूर्ति रूप एक "मूर्ति-पूजा विचार" नामक लेख लिखने का निश्चय किया, जिसे पाठक पहिले ही पृष्ठसे देखेंगे मेरे लेख के पीछे पाठक तीन लेख और देखेंगे जिसमें से दो लेखोंके लेखक तो वयोवृद्ध जैन तत्व वेता शा० कुंवरजी आणंदजी हैं। जो कि एक जैन दर्शन के अच्छे घेत्ता है और समय २ पर इस तरह के लेख निकाल जनता का अच्छा उपकार करते रहते हैं, आपके उक्त दोनों लेखोंको जनताने बड़ा ही अपनाया, यही कारण है कि उक्त दोनों लेख कईवार प्रकाशित हो चुके हैं। तीसरा लेख पं० चन्दुलालजी का है यह भी बड़ा ही महत्व एवं उक्त विषय को अधिक स्पष्ट करनेवाला होनेके कारण बड़ा ही उपयोगी है यह
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