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प्रकाशकीय यद्यपि हिमाचल प्रदेश स्थित काँगड़ा पुरातन नाम नगरकोट का जैन मन्दिर कई शताब्दियों तक कालगर्त में छुपा रहा, तथापि वर्तमान में तपागच्छाधिपति परम पूज्य श्री श्री १००८ श्रीमद् विजयानंद सूरिजी महाराज (प्रसिद्ध नाम आचार्य आत्मारामजी महाराज ) व उनकी परम्परा में उनके पट्टधर पूज्य आचार्य श्री विजयवल्लभ सूरीश्वरजी महाराज के भागीरथ प्रयत्नों द्वारा इस विस्मृत तीर्थ का उद्धार किया गया। इस संदर्भ में जैन भारती महत्तरा साध्वी श्री मृगावती श्री जी महाराज के अथक प्रयास की भूमिका भी अपनी एक विशिष्ट स्थान रखती है। उनकी प्रेरणा से सन् १९७८ के चर्तुमास में कांगड़ा दुर्ग में विराजित प्रथम तीर्थङ्कर श्री आदिनाथ भगवान की अत्यन्त चमत्कारी एवं प्रगट प्रभावी प्रतिमा की सेवा पूजा का अधिकार पुरातत्व विभाग से स्थायी रुप से मिला।
वर्तमान में काँगड़ा तीर्थ को उत्तरी भारत का शत्रुञ्जय तीर्थ कहा जा रहा है और वैसे भी परमपूज्य आचार्य विजय वल्लभ-समुद्र-इन्द्रदिन्न सद्गुरुओं के प्रताप व इनके द्वारा किये गये सत् प्रयत्नों ने पंजाब के जैन समुदाय को एक ऐसी अनुकरणीय प्रेरणा दी कि आज इस पुरातन तीर्थ में स्थित प्रथम तीर्थङ्कर आदीश्वर भगवान् की प्रतिमा उस नैसर्गिक सौन्दर्य में निर्मित विशाल भवनों के परकोटे में भक्त-जनों को धर्म-कर्म की और अग्रसर होने के लिये प्रत्येक क्षण उत्साहित करती है।
जैन समाज विशेषतः पंजाब का जैन समाज परम पूज्य आचार्य १००८ श्री विजयानंदसूरीश्वरजी का सदा ही ऋणी रहेगा। जिनके उपदेशों से समूचे पंजाब में अध्यात्मिक उन्नति के लिए मन्दिरों उपाश्रयों व शैक्षणिक विकास के लिए स्कूलों एवं कालेजों की स्थापना संभव हुई। वस्तुतः विक्रम संवत् १६८२ में आचार्य पद पर श्री विजयसिंहसूरि विराजमान हुये थे, किन्तु कालान्तर में कुछ ऐसी अव्यवस्था आयी कि भारत का जैन संघ किसी भी व्यक्ति को आचार्य पद न दे सका। पंजाब केसरी आचार्य श्री १००८ श्री विजयानंदसूरीश्वरजी महाराज को उनकी विद्वता और चतुर्दिक गुणवत्ता को भली प्रकार परखने के पश्चात् ही २६० वर्ष के अंतराल के पश्चात् विक्रम संवत १९४३ की मार्गशीर्ष बदी पंचमी के दिन आचार्य पदवी से विभूषित
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