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आत्म-शिक्षा-सिझाय
( १२७ )
पाठ करम ए छ अतुली बल, पिशुन वसै न परीजीयै । ओ.।। 'अमरसिंधुर' अनुभव अभ्यासै, सिवपुर नां सुख लीजीयै। आ.।६।
आत्म-शिक्षा-सिझाय ( सुणि गोवालणी गोरसडा वाली तु अलगी रहिनें, ए देसी) सुणि साजनजी करम लग्या छै केड कुमति मति प्रापै। सुध समकित जी सुमति त्रियानो संग मिली ते कापै ॥ .। ए आदी अनादी तणां वैरी, जे जीव भणी कोधौ जेरी,
जे भटकावै छै भव फेरी। सुणि।१। ध्रम कारज करतां धमकावै, ए सुभमति गति मैं अटकावै,
ए लालच लोभ दिसा लावै । सुणि।२। ए काम क्रोध में उपजावै, ए माया ममता मन लावै,
ए मद मच्छर मैं नहि मावै । सुणि०।३। अविरत एहने छ पटरांणी, ते मोहराय ने मन मांनी,
जे नरक तणी छै नींसाणी । सुणि०।४। पर परणितसै जे जीयराता, ते केम लहे स्यै सुख साता,
दुरगत दोहग नां छै दाता । सुणि० । ५। सदगुरु शीखडली मनधरीग, सुधसमकित करणी नित करीमै,
भल सुजस सोभाग तदा वरीयै। सुणि०।६।
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