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जिनकुशलसूरि-गीत
( १०३ )
जिनकुशलसूरि-गीत
राग-वसन्त कुशल सूरीसर ध्यावो रे, परमानंद पावो । कुशल ०। इल उदयो सुरतरु अवतारी, वारी जाऊँ बार हजारी रे। पर.१। परचा साचा जग में पेखी, नमय सदा नर नारी रे। पर.२॥ जल दातार विरुद जग चावौ, दिन २ चढ़ता दावो रे । पर.३। भविजन मिलनै भावना भावौ, गहिर सरे गुण गावोरे। पर.४। 'अमर' सेवक नै अपणो जाणी, सुख संपदा वधावो रे । पर.१
जिनमहेन्द्रसूरि-गहूँली
देसी गरवानी धन "सूरत" नगर सचंग, राजै तिहां सिंघ सरंग। सध समकित गण जस संग, गोरी मिल 'गोहली' नित गावै।
मणि मोतीय थाल वधावै । गोरा० ॥१॥ वड वखती तखत विराजै, छति अधिकी अोपम छाजै।
भावठ भय रै भाजै । गोरी० ॥२॥ "महेन्द्र" सूरि महाराजा, वाजै जस अवचल जस वाजा।
राजै "खरतर" गछ राजा । गोरी० ॥३॥
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