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________________ उनका स्वस्थ शरीर देखते देखते चला गया, यही घटना संसार की क्षणभंगुरता बताने के लिए आपके संस्कारी मन को पर्याप्त थी। मित्र देवजी भाई से बात हुई, वे भी संसार से विरक्त थे। संयोगवश उसी वर्ष परमपूज्य श्री मोहनलालजी महाराज का बम्बई में चातुर्मास था। दोनों मित्रों ने उनकी अमृत-वाणी से वैराग्य वासित होकर दीक्षा देने की प्रार्थना की। पूज्यश्री ने ममुक्षु चिमनाजी के साथ आपको अपने विद्वान शिष्य श्री राजमुनिजी के पास आबू के निकटवर्ती मंढार गांव में भेजा। राजमुनिजी ने दोनों मित्रों को सं0 १६५८ चैत्रवदि ३ को शुभमुहूर्त में दीक्षा दी। श्रीदेवजी भाई रत्नमुनि ( आचार्य श्रीजिनरत्नसूरि और लधाभाई लब्धिमुनि बने। प्रथम चातुर्मास में पंच प्रतिक्रमणादि का अभ्यास पूर्ण हो गया। सं० १६६० वैशाख सुदी १० को पन्यास श्री यशोमुनि (आ० जिनयशःसूरि जी के पास आप दोनों की बड़ी दीक्षा हुई। तदन्तर सं० १६७२ तक राजस्थान, सौराष्ट्र, गुजरात और मालवा में गुरुवर्य श्रीराजमुनिजी के साथ विचरे। उनके स्वर्गवासी हो जाने से डग में चातुर्मास कर के सं० १६७४-७५ के चातुर्मास बम्बई और सूरत में पं० श्री ऋद्धिमुनिजी और कान्तिमुनिजी के साथ किये। तदनंतर कच्छ पधार कर सं० १९७६-७७ के चातुर्मास भुज व मांडवी में अपने गुरु भ्राता श्री रत्नमुनिजी के साथ किये। चार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003816
Book TitleYugpradhan Jinchandrasuri Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Nahta
PublisherAbhaychand Seth
Publication Year1971
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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