________________
धर्मजिन स्तुति १५
दृग् - स्नेह - कामवश दूषित प्रेम - प्रवाह, प्रत्याहारी प्रभु धर्म-पदे शुद्ध राह ; चित्त कमले ध्यावो प्रभु छबि धरी उत्साह,
खुले परम खजानो सहजानंद अथाह ; ॥१५॥ शान्तिजिन स्तुति १६
परिस्थिति वश जे-जे उठे चित्त-तरंग, ते भिन्न तुं भिन्न अत: क्षुभित न हो अंतरंग ; ठरो शान्त रसे तो प्रगटे अनुभव-गंग
प्रभु शांति पसाये सहजानंद अभंग ; ॥१६॥ कुन्थुजिन स्तुति १७
अररर ! भ्रम-भ्रम !! छी !!! जड़ मन नों शो दोष ? चेतन निज भूले करे रोष ने तोष ; शुद्ध भाव रमे जो मन विलीन निज-कोष,
प्रभु कुंथु कृपा थी सहजानंद रस पोष ; । १७।। अरजिन स्तुति १८
सम् अयति-द्रव्य सौ अने चेतन निरधार, चित्त त्रिविध कर्म स्थित ते परसमय विकार ; ज्ञायक सत्ता स्थिति चेतन स्व समय सार,
अर धर्म-मर्म अ सहजानंद अविकार ; ॥१८॥ मल्लिजिन स्तुति १९
चिद्-जड़ अभान त्यां सुषुप्त-चेतन अंध, केवल जड़ भाने स्वप्न सृष्टि सम्बन्ध ; निज-पर विज्ञाने जाग्रत भेदक संघ, प्रभु मल्लि उजागर केवल ज्ञानानंद ; ॥१९॥
[ १७१
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org