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सुमति जिन स्तुति ५
ज्ञायक-सत्ता हुँ सुमति - प्रभु-पद - बीज,
अपित उपयोगे अन्तरात्म - रस - रीझ ; छूटे जड़ - सत्ता - मोह रीझ में खीज,
बीज-वृक्ष न्यायवत् सहजानंदघन सीझ ; ॥५॥ पद्मप्रम जिन स्तुति ६
संग युंजन करणे चित् - प्रकाश - त्रिकर्म, गुणकरणे शमावी ज्योति-ज्योत स्वधर्म ; जल-पंकथी न्यारा पद्मप्रभु गत-भर्म,
निज-जिन पद एकज सहजानंदघन मर्म ॥६॥ सुपार्श्व जिन स्तुति ७
नभ-रूप-विविधता ज्यां लगी पर्यय-दृष्टि, पण द्रव्य दृष्टिए अक अखंड समष्टि ; प्रभुता अवलंब्ये प्रगटे निज गुण सृष्टि;
सुपार्च शरण थी सहजानंदघन वृष्टि ; ॥७॥ चंद्रप्रम जिन स्तुति ८
सत्संग - सुपात्रे योग - अवंचक नेक, स्वरूपानुसंधाने क्रिया अवंचक टेक ; मोह-क्षोभ विनाशे अवंचक फल एक,
प्रभु-चंद्र प्रकाशे सहजानंद विवेक ; ॥८॥ सुविधिजिन स्तुति ९
जिन-मंदिर-तनमंदिर अनुभव - संकेत, अनहद अमृतरस ज्योति आदि समवेत ; अष्ट द्रव्य मिसे अ अनुभव-क्रम अभिप्रेत, सुविधि - प्रभु पूजत सहजानंदघन लेत ; ॥९॥
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