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२४ वीर जिन चैत्यवंदन
आत्म प्रदेश ने स्थिर करे, ते अभिसंधि-वीर्य ; कषाय वश थी वीर्य ते, अनभिसंधि अस्थैर्य...१ अभिसंधि बल फोरव्ये, वीर पणु मन-मौन ; उदय अव्यापकतन-वचन, क्रिया थाय ज्यां गौण.."२ साढा बार वरस लगी, वीर पणे विचरंत ; वंदु श्रीमहावीर ने, सहजानंदघन सत""३
कलश
निज अलख गुण लखवा भणी, धरी लक्ष तजी सहु पक्षने; गिरिकन्दरा मोकल चोमासे, साधवा मन अक्ष ने ; आनंदघन चौवीसी' लक्षे, चैत्यवंदन ए स्तव्या ; गति-नभ-ख-बंधन (२००४) विक्रमे, शुद्ध सहजानंद पदठव्या १
१-आनंदघनजी की चौवीसी पर्याप्त प्रसिद्ध और भावपूर्ण रचना है। उसके योग्य चैत्यवन्दनों की कमी अनुभव कर आपने उन्हीं भावों को लेकर यहचैत्यवन्दन चौवीसी सं० २००४ में गुम्फित की है।
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