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१८ अरनाथ जिन चैत्यवंदन
उभय नय अभ्यासी ने, द्रव्य-दृष्टि धरी लक्ष ; तदनुकूल पर्यय करी, अर-प्रभु धर्म प्रत्यक्ष... १
भेद - दृष्टि व्यवहारी ने, निर्विकल्प उपयोग थी,
परम धर्म छे ज्यां प्रगट, सहजानंदघन
पामवा,
थइ अभेद निज द्रव्य ; परमधर्म लहो भव्य २
१९ मल्लिनाथ जिन चैत्यवंदन
सद्गुरु संत नी सेव ; पुष्टालंबन
घाती - घातक मल्लि - जिन, दोष अढार विहीन ;
अवर सदोषी परिहरी, थाओ जिन-गुण लीन... १ जिन - -गुण निज-गुण एकता, जिनसेव्ये निज-सेव ; प्रगट गुणी सेवन थकी, प्रगटे आतम देव २
दोषी अदोषी परखिए, संताश्रय धरी नेह ; तो सहेजे निपजाविओ, सहजानंदघन गेह ३
२० मुनिसुव्रत जिन चैत्यवंदन
सत्संगी
सत् - श्रद्धा
आतम धर्म जणाय छे, मुनिसुव्रत जिन ध्याइ ; बीजा मत दर्शन घणा, पण त्यां तत्व
न भाइ...
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देव...३
रंगी थई, धरिये लयलीन थई, तो प्रगटे
आतम-ध्यान ;
सद्-ज्ञान २
दृग् ज्ञाने निज रूप माँ, रमतो आतम राम ;
रत्नत्रयी नी एकता,
सहजानंदघन
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स्वाम....३
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