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________________ १५ धर्मनाथ जिन चैत्यवंदन धर्म-मर्म जिन धर्म नो, विशुद्ध द्रव्य स्वभाव ; स्वानुभूति वण साधना, सकल अशुद्ध विभाव .. १ १६४ ] तप जप संयम खप थकी, कोटि जन्मो जाय ; ज्ञानांजन अंजित नयन, वण नवि ते परखाय...२ दिव्य नयनघर सन्तनी, कृपा लहे जो कोइ, तो सहेजे कारज सधे, सहजानंदघन सोई ३ १६ शान्तिनाथ जिन चैत्यवंदन सेवो शांति जिणंद भवि, शान्त-सुधारस धाम ; अवर रसे आधीन जे, तेथी सरे न काम. १ शान्त भाव वण ना लहे, शुद्ध स्वरूप निवास ; लवण - महासागर जले, कदी न बूझे प्यास २ तेथी शांति स्वरूप नो, सहजानंदघन उल्ल से, १७ कुन्थु जिन चैत्यवंदन Jain Educationa International सतत करो अभ्यास ; सन्ताश्रयणे खास ३ कुन्थु-प्रभु! मुझने कहो, मन वश करण उपाय ; जेवण शुभ करणी सही, तुस खंडन सम थाय... १ अजपा जाप आहार दई, सास दोरड़े बांध ; निश दिन सोवत जागते, एज लक्षने सांध....२ अथवा संताधीन था, अवर न कोई इलाज ; गुरुगम सेवत पामिये, सहजानंदघन राज... ३ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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