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१८. श्री अर-जिन स्तवनम् एकदा दिगम्बर सम्प्रदाय के कितनेक मुमुक्षु, स्वानुभूति के हेतु प्रत्यक्ष-सत्पुरुष की खोज में निकल पड़े। उन्होंने अपनी आवश्यकता की पूत्ति के लिये अनेक देशों में परिभ्रमण किया और साथ में तीर्थ यात्रा भी करते गये, पर वास्तविक सत्पुरुष का उन्हें कहीं भी साक्षात्कार नहीं हआ। आखिर वे तीर्थाघिराज सिद्ध-क्षेत्र श्री शिखरजी की वन्दना के लिये गये। वहाँ उन्हें किसी मरुधर-देश निवासी एक मुमुक्षु के मुख से पता चला कि मरुधर-भूमि में साक्षात् कल्पवृक्ष तुल्य आनन्दघनजी नामक एक स्वरूप-निष्ठ सन्त अमुक निर्जन प्रदेश में विराजमान हैं। उनकी आत्मदशा के दर्शनमात्र से भी सुपात्र स्वरूप जिज्ञासुओं की वृत्तियाँ स्वरूपाभिमुख हो जाती हैं। अत्यन्त निष्पृह और पहुंचे हुये पुरुष हैं वे।
यद्यपि उनका जन्म श्वेताम्बर जैन परम्परा में ओसवाल जाति के एक धनाढय घराने में हुआ, तदनुसार वे दीक्षित भी श्वेताम्बर सम्प्रदाय में हुये, पर अनुभव-शून्य साम्प्रदायिकता उन्हें सन्तुष्ट नहीं कर सकी। अतः जन्मान्तर की स्मृति के आधार पर साम्प्रदायिक-जाल से मुक्त हो वस्त्र-पात्र आदि का परित्याग करके उन्होंने जंगल का रास्ता ले लिया। उस प्रदेश में दिगम्बर-दशा से लोग घृणा करते हैं, अतः उनके भक्त लोगों को उनकी नंग-धडंग दशा अखरी, फलतः एक साहसिक भक्त ने जबकि बाबा खड्गासन में ध्यानस्थ थे, एक कोपीन उन्हें पहनादी। वे कभी एक वृक्ष के नीचे रहते हैं तो कभी दूसरे, कभी गिरी-कन्दरा में तो कभी श्मशान, शुन्यागार में उन्हें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से कोई प्रतिबन्ध नहीं है ।
आहार-जल की आवश्यकता पड़ने पर वे आसपास की बस्तियों में चले जाते हैं और एषणीय शुद्ध आहार-विधि मिलने पर पाणिपात्र से ही ठाम चौविहार उदरपूत्ति करके चले जाते हैं। कभी-कभी दो१४२ ]
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