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सत्संगी - शास्त्रों में कहा गया है कि आत्मा के लिये भव-बन्धन और भव- मोक्ष का कारण केवल एक मन ही है, और मन का प्रेरक आत्मा है । प्रेरक की गफलत में अशासित-मन प्रेरक को बन्ध-मार्ग में ही पटक कर स्वयं इधर-उधर भागता फिरता है; किन्तु प्रेरक यदि सजग हो और वह समझा-बुझाकर इससे काम ले तो शासितमन प्रेरक को मात्र अन्तर्मुहुर्त में ही भव - बन्धन से मुक्त करा देता है, अतः आत्मा, मन से जो भी काम कराना चाहे वह करा सकता है और वह अपने कर्त्तव्य क्षेत्र में स्वतंत्र है । मेरी विनम्र राय है कि आप और सभी दलीलें छोड़ कर स्वयं सजग रहिये एवं प्रेम-शासन से इसे स्व-वश रखकर मोक्ष मार्ग में लगाइये ।
६. मुमुक्षु - अजी ! क्या बताऊं ? इसे शासित रखने के लिये मैं कितनी मेहनत करता हूँ - वह तो मेरा जी जानता है। मौका पाकर इसे जो-जो भी हित वचन कहता हूँ - सब पत्थर पर पानी । इस ओर कान तक नहीं देता । जैसा कि दिमाग खराब हो जाने पर काल्हा अर्थात् पागल आदमी किसी का कहना नहीं सुनता वैसे ही मेरा यह पागल मन मेरी एक भी नहीं सुनता और केवल अपने मते चलकर सतत कल्पना प्रवाह के गन्दे कार्माण-कीच में 'सूकर की आलोटता हुआ अपना शरीर सर्वांग काला किये रहता है ।
तरह
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मनोजय के सम्बन्ध में केवल मैं ही असमर्थ हूँ - ऐसी बात नहीं हैं, बड़े-बड़े अचिन्त्य शक्ति सम्पन्न देवता लोग, शेर- गेंडे अष्टापद आदि दुर्दम पशुओं को भी जीते-जी कान पकड़कर कैदी बनाने वाले बलवान मनुष्य और मनुष्यों में भी मनोजय के विषय में ही व्याख्यानबाजी करने वाले समर्थ पोथी - पण्डित भी खुद के मन को समझाबुझाकर उसे स्व-वश रखने में असमर्थ सिद्ध हुये हैं । बहिन कुमति का भरमाया मेरा यह साला किसी के समझाने पर भी नहीं समझता । अतः इसके कारण सारी देह धारी - दुनिया परेशान है ।
क्योंकि अपनी
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