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स्वाध्याय करना चाहिए कि जिनसे आगमों की विशेषतः गम अर्थात् जानकारी मिल सकती हो । विशेष जानकारी में भी वह गुरुगम साधकीय जीवन में इष्ट है कि जिस गुरुगम से अहंता की आग और ममता की बेड़ी से मुक्त होकर 'आये' और 'गये' श्वासोच्छ्वास की 'मन' निगरानी करता रहे। क्योंकि स्वरूप विलास भवन के द्वारपाल से यदि सुदृढ़ परिचय हो जाय, तो उसकी मेहरबानी उतरने पर इससे महाराजा की मुलाकात भी सुलभ हो जाय ?
४. मुमुक्षु - अजी ! चौरासी 'आ' वा 'ग' मन में ही जो 'मन' राजी हो, उस मन को आगम का समस्त गम भी क्या कर सकती है और आयेगये पवन - पिता की गोद में भी वह पवन पुत्र कैसे ठहर सकता है ! मुझे अनुभव है कि स्वाध्याय के लिये आगम साहित्य हाथ में उठा कर मनोनिग्रह के ही विषय पर जहाँ मनन करना शुरु किया कि तुरन्त चलते हुये विषय को ठुकरा कर यह दुर्दम मन भाग खड़ा हो जाता है - ऐसे चपल को स्वाध्याय द्वारा भी किस तरह अंकुश में लाया जाय ? और जब कभी इधर-उधर भागते हुये इसे यदि हठ पूर्वक किसी तरह हटकाता हूँ अर्थात् बलपूर्वक रोकता हूँ तब तो इस वक्र की गति छेड़े हुये साँप की सी और भी कुटिल हो जाती है तब तो मेरे हृदय प्रदेश में यह इतना उत्पात मचाता है कि जिसकी कोई हद ही नहीं | और यदि इसे हठ के बिना ही जब प्रेम से समझाता हूँ तब इतनी वक्रता नहीं करता । इस प्रकार उल्टी चाल वाले घोड़े की - सी इसकी दशा है । उक्त घोड़े को तो लगाम भी लग सकती है पर इसे लगाम भी नहीं लग सकती ।
सत्संगी-बन्धो ! चौरासी के आवागमन में मन राजी है या हम ? मन की नाच - कूद क्या सचमुच उत्पात - रूप है या यह हमारी समझ का अपराध है । मन घोड़े को उल्टी चाल किसने सिखायी ? और इसे लगाम लगाई जा सकती है
या नहीं ? इन सब प्रश्नों का
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