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जैसे जब कि सर्प डसने के अवसर में लोग चिल्ला उठते हैं कि अरे सांप ने खा लिया तब न्याय दृष्टि से यदि देखा जाय तो क्या साँप के पल्ले कुछ पड़ता है ? क्योंकि काटने पर भी साँप का मुंह तो जैसा का तैसा खालीखम ही बना रहता है-ठीक यही दृष्टान्त मन की दौड़ धूप पर चरितार्थ होता है।
सत्संगी-जिसका मन प्रभु भक्ति में नहीं लगता हो उसको चाहिए कि अपने मन को ज्ञेय-ध्यान से हटाकर उसे ज्ञान-ध्यान के अभ्यास में लगाये रखने का निरन्तर पुरुषार्थ किया करे।
३. मुमुक्षु-बन्धो ! सुना जाता है कि जिन्हें सर्वार्थसिद्धविमान तक के भौतिक सुख को तनिक भी लालसा नहीं थी और केवल भव-बन्धन से मुक्त होने की अभिलाषा वश घोर तपस्या करते हुए सन्त प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ज्ञान-ध्यान के अभ्यास द्वारा ही केवल कायोत्सर्ग स्थित दत्तचित्त थे। पर जब पास से जाते हुए महाराजा श्रेणिक के सेनानी के मुख से उन्हे अपने परित्यक्त पुत्र और राष्ट्र के सम्बन्ध में अनहोनी बातें सुनने में आयी तब तत्काल राजर्षि के मन ने ऐसा ऊधम मचाया कि उन्हें सांतवीं नरक में धकेलने की सामग्री इसने एकत्रित कर दी। इसी तरह न जाने कितने ज्ञानी ध्यानी त्यागी तपस्वी मुमुक्षुओं को इसने पथभ्रष्ट कर दिया होगा। सन्मार्ग में दाव लगाते ही ऐसे महात्माओं को भी यह बैरी कोई ऐसी चिन्ता जाल में उलझा देता है कि उनके पासे ही पलट जायें। जबकि महात्माओं का मन ज्ञान-ध्यान में एकनिष्ठ नहीं रह सकता नब मुझ जैसे घर गृहस्थियों के मन का क्या कहना।
सत्संगी-राजर्षि के मन ने तो फिर तत्काल उन्हें केवलज्ञान भी प्राप्त करा दिया। अतः दूसरों की बात छोड़ो और आप आपकी सम्भालो ! यदि ज्ञान ध्यान में मन न लगता हो तो उसे शास्त्र-स्वाध्याय में लगाना उचित है। शास्त्रों में भी उन्हीं शास्त्रों का विशेषतः
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