________________
क्या पराया? उन्हें सभी के शरीर और आत्मा भिन्न-भिन्न प्रत्यक्ष दिखते हैं अतः विश्व के प्राणी मात्र के प्रति एक-सी आत्मदृष्टि और समरसता है । उनके विषय में अधिक क्या कहूँ ? वे तो अपनी ज्ञायक सत्ता में इतने तल्लीन रहते हैं कि हम देहधारी हैं या देहातीत ? यह भी अपनी स्मृति में लाना उन्हें कठिन हो जाता है अतः उनके लिए मुक्ति और संसार एक-से हैं, फलतः दोनों के प्रति उनकी समबुद्धि है ।
ये सब उपरोक्त लक्षण जिनके जीवन में एवंभूतनय से विद्यमान हों - वास्तव में वे ही सत्पुरुष हैं और वे ही इस संसार सागर से पार उतरने के हेतु मुमुक्षुओं के लिए सफरी जहाज हैं। तू समझ ले कि सद्गुरु ऐसे ही होते हैं । जीवन में इन लक्षणों के घटित होने के पूर्व शिष्य - पद है, गुरुपद नहीं ; और वह गुरुपद से भी दुर्लभ है । यदि कोई यथार्थ रूप में शिष्य-पद पर आरूढ़ हो जाय तो उसका शिष्यत्व अवशेष नहीं रह सकता, क्योंकि सद्गुरु उसके शिष्यत्व को मिटाकर तुरन्त अपने तुल्य बना देते हैं और ऐसे सद्गुरु ही इस स्वानुभूति के मार्ग में कार्यकारी हैं ।
I
मेरा आशीर्वाद है कि तू भी ऐसा ही ज्ञानी हो ! दशविध यति धर्म को अंगीकार करके तू सच्चा यति बन और पूर्व जन्म की साधनापद्धति के बल से स्वानुभूति के मार्ग में अग्रसर हो ।
११. स्वानुभूति के मार्ग में अग्रसर होने के लिए तू अपने उपयोग के ऊपर निरन्तर आत्म - भावना के पुट लगाते रहना, क्योंकि दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग-रूप अपनी चेतना का आधार एक मात्र अपनी आत्मा ही है । परमार्थतः चेतन और चेतना का परस्पर आधार - आधेयसम्बन्ध है । चेतन आधार है और चेतना आधेय है। आधेय चेतना को अपने उद्गम स्थल चेतन का आधार मिलने पर ही वह स्वरूपस्थ और स्थिर रह सकती है । उसके पिन और रेकार्ड की तरह चेतन से अनुभव तन्त्रियों की वीणा बजने लगती है फलतः आत्म प्रदेश में भी
[ १२५
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org