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उपाध्याय यशोविजयजी न्याय विशारद, तार्किक शिरोमणि और अपनी शैली के मूर्धन्य विद्वान थे जिनके समकक्ष सहस्राब्दी में कोई नहीं आ सका । उन्होंने शताधिक ग्रंथ रचे किन्तु दुर्भाग्य की बात है कि उनके अध्येता नहीं मिले अन्यथा उनको अनेक प्रतियाँ ज्ञान भण्डारों में मिलती और वे लुप्त नहीं होते । यदि उनकी आनंदघन चौवीसी बालावबोध उपलब्ध हो जाता तो सोने में सुगंध होती, परन्तु जैन समाज अपनी महान् ज्ञान समृद्धि की रक्षा करने में ही अक्षम रहा, अध्ययन तो दूर रहा ।
श्री ज्ञानविमलसूरिजी के पश्चात् ज्ञानसारजी के बालावबोध का परिचय ऊपर आ गया है । बीसवीं शताब्दी में शताधिक ग्रंथ रचयिता, अध्यात्म रसिक, अपनी दीक्षा से पूर्व श्रीमद् देवचंद्रजी महाराज के आगमसार का सौ वार अध्ययन करने वाले, उनकी प्राप्त समस्त रचनाओं को प्रकाश में लाने वाले महान जैनाचार्य श्री बुद्धिसागरसूरि महाराज हुए जिन्होंने 'आनंदघन पद संग्रह भावार्थ' नामक महान् ग्रंथ पादरा से प्रकाशित किया। उसकी द्वितीयाबृत्ति बम्बई से सचित्र छपी जिस में प्रारंभ के ६ पेज १४ चित्र, १९३ पेज में उपोद्घात व अध्यात्मज्ञाननी आवश्यकता, २०६ पेज में आनंदघनजी का जीवनचरित्र एवं ४५६ पृष्ठों में पद संग्रह और स्तवन प्रकाशित हुए हैं ! आचार्य श्री परमश्रद्धेय एवं महान् लेखक व कवि थे किन्तु दु:ख के साथ लिखना पड़ता है कि उन्होंने यशोविजयजी महाराज के मिलन स्वरूप अष्टपदी के सिवाय बिना किसी प्रमाण के अनुमानिक कल्पना सृष्टि द्वारा विस्तार पूर्वक प्ररूपणाएं कर डाली । मैं यहाँ कुछ बातें प्रस्तुत करता हूँ ।
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“आ योगीवर नुं मूल नाम लाभानंदजी हतुं तेणे तपगच्छ मां दीक्षा अंगीकार करी हती तेमना पदो लगभग हिन्दुस्तानी मिश्रित मारवाड़ी भाषा मां रचायला छे ( आमुख वृ० ११ )
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