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कीय जीवन में धर्मका मर्म और उसके लिये धर्म मर्मज्ञ की भी शरण नितान्त आवश्यक है, और आवश्यक है अपनी सत्पात्रता को भी अपने जीवन में विकसित करना ।
३. परिग्रह-प्रेम, स्व-दोष छिपाने की वृत्ति, स्वच्छन्दता और असत्संग रुचि का शत्रुवत् परित्याग करके शिष्य जब हृदय-नेत्र वाले प्रत्यक्ष-सद्गुरु के चरणों में अनन्य शरण होकर उनकी आज्ञा-सेवा में एकनिष्ठ हो जाता है एवं जब उसकी सत्सेवा-परायणता पर सद्गुरु की कृपा-नजर उतरती है तब तो वे परम कृपालु निष्कारण-करुणा वश स्वतः ही अपनी योग-शक्ति-रूप शलाका से प्रवचन-अंजन करके शिष्य की अन्तर्चक्षु का उन्मीलन करते हैं अर्थात् स्वानुभूति-क्रम का रहस्य व्यक्त करके उसे निजी गुप्त खजाने को खोलने की कुंजी बताते हैं, जिससे शिष्य का कल्पना-जाल स्वतः समा जाता है और हृदय की उस निस्तरंग-दशा में तिमिर-पट हटकर शिष्य का चैतन्य-खजाना खुल जाता है। जो खजाना विश्वभर के खजानों में परमोत्कृष्ट सारस्वरूप है, क्योंकि विश्वभर के दूसरे खजानों में तो पृथ्वी के विकाररूप मणि-माणक, हीरा-पन्ना, सोना-चाँदी आदि मात्र जड़-धन है जो कि चेतन के लिए पर-स्वरूप होने से अनुपभोग्य हैं अतः उससे तृप्ति नहीं होती। जबकि इसमें केवल आत्मदर्शन, आत्मज्ञान, आत्मसमाधि, आत्मानन्द आदि अखूट धर्म धन भरा हुआ है जो कि चेतन के लिए निज-स्वरूप होने से उपभोग्य है अतः इसी से परितृप्ति होती है। इस परम निधान के ताले को खोलने की कुंजी निम्न प्रकार है :
जैसे सूर्य के आतप में विश्वभर के दाह्य-पदार्थों को भस्मीभूत करने की शक्ति है पर जबतक वह शक्ति बिखरी हुई है, तब तक कार्यक्षम नहीं है। आतपी-काच द्वारा ज्योंहि उसे दाह्य-पदार्थों पर केन्द्रित करते हैं, त्योंही उसमें से अग्नि प्रकट होकर दाह्य-आकृति मात्र को भस्मीभूत करके बिखेर देती है ; वैसे ही चेतन-सूर्य के
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