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________________ मानवता को खो देने पर ही धर्म-विद्वेष फैलकर साधकीय हृदय को कलुषित बनाता है यावत् साधना के भी उचित नहीं रहता, अतः परमतसहिष्णुता एवं शिष्टाचार की साधकीय जीवन में अनिवार्यता है क्योंकि सारा विश्व प्रियतम का ही परिवार है और परिवार का बहुमान ही प्रियतम का बहुमान है। २. अरे बावरे ! धर्म-धर्म रटते हुए जगह-जगह धर्म प्राप्ति का उपाय क्यों पूछ रहे हो ? क्योंकि सम्प्रदायों के गुरुओं के पास सर्वत्र कोरी साम्प्रदायिकता रह गई है, धर्म नहीं रहा। उन्होंने तो साम्प्रदायिक-अभिनिवेश वश धर्म के मर्म को ही भुला दिया है । तब भला ! वे बेचारे सम्प्रदाय-भाराकान्त गुरुभारवाही गुरु तुम्हें धर्म के मर्म को कहां से लाकर देगें ? शास्त्रों में भी धर्म का मार्ग बताया गया है, मर्म नहीं, क्योंकि धर्म का ममं तो केवल धर्ममूर्ति सत्पुरुषों के हृदय में ही रहा करता है, जिन्हें कि धर्म का साक्षात्कार हो चुका है ; अन्यत्र नहीं। अजी ! साधक के लिए धर्म दुर्लभ नहीं प्रत्युत धर्म का मर्म ही दुर्लभ है क्योंकि धर्म-मम को प्रदान करने वाले धर्म-मर्मज्ञों की ही विश्व में सदा स्वल्पता चली आ रही है। पुण्यानुबन्धी पुण्य के प्रकृष्ट उदय में यदि धर्म-मर्मज्ञ और धर्म का मर्म हाथ लग जाय और तद्नुसार यदि भगवान धर्म-जिनेश्वर का चरण-शरण मिल जाय तो उनका कोई भी सेवक नूतन कर्म-बन्धन से आबद्ध नहीं होता , क्योंकि नूतन कर्म बन्धन का कारण तो शुभाशुभ कल्पना जाल है। जबकि उस जाल की प्रथमत: बलि चढ़ाये बिना जिन-चरणों का शरण ही नहीं मिलता अर्थात् जिन-चरण को अपना लेना यही जिन-चरण-शरण पाना है । जिन-अनुयायी निज आचरण में भी शुभाशुभ कल्पना को स्थान ही नहीं देते। फलतः जिन-शरणागत सहज ही में निजधर्म ऐश्वर्य प्रकटा कर पूर्व कर्मबन्धन से मुक्त-भवपार हो जाता है। इसीलिए साध १०० ] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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