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लक्षण है— अपनी दर्शन - ज्ञान - चेतना की आत्माकार अखण्ड स्थिरता : किन्तु ओघा - मुहपत्ती किंवा पीछी - कमण्डलु - ये कोई चारित्र के मुख्य लक्षण नहीं है ।
आत्मसाक्षात्कार सम्पन्न
ताती तलवार की तीक्ष्णतम धार पर नंगे पैर चलना - यह भी कोई दुष्कर नहीं है, क्योंकि उस पर तो कितने ही बाजीगर नाचतेकूदते देखे जाते हैं; किन्तु उपरोक्त चारित्र मार्ग की अप्रमत्त-धारा पर केवल असंग उपयोग से चलना अत्यन्त दुष्कर है, क्योंकि इस पर कदम रखने में वे बाजीगर तो क्या ? अचिन्त्य दिव्य शक्ति वाले देवलोक के अधिपति इन्द्र अहमिन्द्र भो समर्थ नहीं हैं ; तब भला ! आत्म साक्षात्कार विहीन ओघा - मुहपत्ती किंवा पोछी - कमण्डलु वाले कोरे द्रव्य-लिंगी बहिरात्मा किस तरह समर्थ हो सकते हैं ? कि जो सम्यक् चारित्र मार्ग से लाखों योजन दूर हैं और जिनमें सीरी तलवार की अतीक्ष्ण धार पर चलने जितना भी चित्त कौशल नहीं है ।
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२. प्रचारक — प्रत्येक गच्छवासी एक स्वर से आलापते हैं किचारित्र के बिना मोक्ष नहीं । चारित्र का मूल किया है, अतः चारित्रआराधना के लिये षट् आवश्यक आदि विविध क्रिया-कलाप का करना आवश्यक है, और यह जिनागम सम्मत ही होना चाहियेतदनुसार तो केवल हमारे ही गच्छ की समाचारी है, अतः जिस पद्धति से हम विविध क्रियाएं करते हैं वही पद्धति सम्यक् है, इसी से मोक्ष होता है, अन्य गच्छ वालों की समाचारियाँ सम्यक् नहीं है अतः उनसे मोक्ष तो क्या, सम्यक्त्व की प्राप्ति भी नहीं हो सकती, क्योंकि दूसरे गच्छवासी सभी के सभी मिथ्यात्वी हैं- इस तरह सभी गच्छवासी एक दूसरे को मिथ्यात्वी कह कर अपनी मानी हुई क्रियाओं का आग्रह करके परस्पर झगड़ते हैं । फलतः क्रियारुचि जीव दुविधा में पड़ जाते हैं कि तीर्थङ्कर परम्परा का मुख्य गच्छ कौनसा ? कौनसे
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