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और क्रिया की अनेकता से द्रव्य-पारतन्त्र्य सिद्ध करता है, और कहता है कि आत्मा तथा शरीर कथंचित् एक हैं । आत्मा जड़ कर्मों का कर्ता है अतएव जड़कर्म-फल भी भोक्ता हैं और यह जड़ कर्मों से आबद्ध है। इसी के निमित्त से जड़-परिणमन होता है एवं इसमें राग आदि हैं।
निश्चयनय षट् कारको को अभिन्न बतलाता हुआ कर्ता, कर्म और क्रिया की एकता से द्रव्य-स्वातन्त्र्य सिद्ध करता है, और इसका कहना है कि जो परिणामी है वही कर्ता है, कर्ता के जो परिणाम हैं वे ही कर्म हैं एवं कर्ता की जो परिणति है वही क्रिया है। परिणामी के बिना परिणति और परिणाम नहीं एवं परिणति तथा परिणाम के बिना परिणामी नहीं ; अतः ये तीनों ही धर्म, धर्मी के अभिन्न अंग हैं क्योंकि प्रदेश-भेद नहीं हैं-इस न्याय से जड़-परिणति और जड़-परिणाम जड़ परिणामी से अभिन्न एव स्वतंत्र है ; तथा चेतन द्वारा की जाने वाली देखने-जानने-रूप चैतन्य परिणति और दर्शन-ज्ञान आदि चेतनापरिणाम चेतन-परिणामी से अभिन्न एवं स्वतंत्र है, अतः चेतन के निमित्त से जड़-परिणमन किंवा जड़ के निमित्त से चैतन्य-परिणमन नहीं होता। लक्षण भेद के कारण आत्मा और शरीर एक नहीं प्रत्युत भिन्न भिन्न हैं। आत्मा जड़ कर्मों का कर्ता नहीं है अतएव जड़ कर्म-फल का भोक्ता भी नहीं है, और स्पर्श गुण से रहित होने के कारण जड़ कर्मो से वह आबद्ध नहीं है। अधिक क्या! आत्म-स्वभाव में राग आदि का स्वतंत्र अस्तित्व है ही नहीं।
इस प्रकार नय कथन के रहस्य को जान कर के भी यदि जीव, नियति अर्थात् निश्चयनय को गौण करके इतर अर्थात् तद्भिन्न व्यवहार नय का ही प्रधानतः अनुसरण करता रहे, तो उसकी ज्ञानचेतना शुभाशुभ-कल्पना जाल में उलझ कर सतत सविकल्पी हो बनी रहेगी। और उस दशा में उत्पन्न तीव्र-मन्द कषाय-उत्ताप को निमित
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